मेरे ज़ेहन की हर दीवार पर
इक इबारत-सी है चस्पां
'ज़िन्दगी ज़िगज़ेग क्यों है...?
'सपाट क्यों नहीं है ...?
मेरे चीखते सवालों का गूँगे जवाबों ने
कभी जवाब नहीं दिया
बस ,'ज़िन्दगी ज़िगज़ेग ...
ज़िगज़ेग ही रहेगी इक टका-सा जवाब दे दिया
लेकिन मैं मुतमईन नहीं हूँ
गर,तुम हो तो...
किसी दिन ख़ाब में मुझ को भी बता देना
ताकि तुम्हारी तरह मैं भी
सपाट,नंगी शाहराहों पर दौड़ना चाहता हूँ
Tuesday, July 21, 2009
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