Saturday, August 29, 2009

ज़िन्दगी जिगज़ेग क्यों है ?

मेरे ज़ेहन की हर दीवार परइक इबारत-सी है चस्पां'ज़िन्दगी ज़िगज़ेग क्यों है...?'सपाट क्यों नहीं है ...?मेरे चीखते सवालों का गूँगे जवाबों नेकभी जवाब नहीं दियाबस ,'ज़िन्दगी ज़िगज़ेग ...ज़िगज़ेग ही रहेगी इक टका-सा जवाब दे दियालेकिन मैं मुतमईन नहीं हूँगर,तुम हो तो...किसी दिन ख़ाब में मुझ को भी बता देनाताकि तुम्हारी तरह मैं भीसपाट,नंगी शाहराहों पर दौड़ना चाहता हूँ

Thursday, August 13, 2009

समीर जैन ने जो तनाव दिए उससे राजेंद्र माथुर उबर न सके
Saturday, 16 May 2009 01:16 अशोक कुमार भड़ास4मीडिया - इंटरव्यू


रामबहादुर रायहमारा हीरो : रामबहादुर राय (भाग- एक) : हिंदी पत्रकारिता का बड़ा और सम्मानित नाम है- रामबहादुर राय। जनसत्ता और नवभारत टाइम्स फेम रामबहादुर राय उन चंद वरिष्ठ पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं जो सिद्धांत, सच, सरोकार, समाज और देश के लिए जीते हैं। पत्रकारिता इनके लिए कभी पद व पैसा पाने का साधन नहीं रहा। पत्रकारिता को इन्होंने देश व समाज को सच बताने, दिशा दिखाने और बदलाव की हर संभव मुहिम को आगे बढ़ाने का माध्यम माना और ऐसा किया-जिया भी। छात्र राजनीति में सक्रिय रहे रामबहादुर राय चाहते तो राजनीति में जा सकते थे और आराम से सांसद-विधायक बन सत्ता सुख भोग सकते थे लेकिन एक्टिविज्म की राह पर निकले युवा रामबहादुर राय को राजनीति में जाना लक्ष्य से समझौता करने जैसा लगा। उन्होंने राजनीति में जाने की बजाय सक्रिय पत्रकारिता की राह का वरण किया। चुनाव लड़ने का बहुत ज्यादा दबाव बढ़ा तो झोला उठाकर हरिद्वार निकल पड़े।
सक्रिय पत्रकारिता में आने के बाद भी उन्हें कई बार लोकसभा चुनाव लड़ने को कहा गया, मगर हर बार उन्होंने विनम्रता से इंकार कर दिया। उन्होंने कई छात्र आंदोलनों का नेतृत्व किया। इमरजेंसी की जमकर मुखालफत की। उनकी सक्रियता का अंदाजा इसी बात से लगता है कि 'मीसा कानून' के अस्तित्व में आने के बाद वह इस धारा में गिरफ्तार होने वाले पहले राजनीतिक बंदी थे। 'जनसत्ता' के संस्थापक सदस्य और प्रभाष जी की टीम के प्रमुख स्तंभ रहे रामबहादुर राय ‘नवभारत टाइम्स’ में राजेंद्र माथुर जैसे दिग्गज के साथ भी काम कर चुके हैं। इन दिनों वे साप्ताहिक पत्रिका 'प्रथम प्रवक्ता' के मुख्य संपादक हैं। यह वही पत्रिका है जिसमें छपी रिपोर्ट के आधार पर इस साल पुण्य प्रसून वाजपेयी को प्रिंट का रामनाथ गोयनका एवार्ड दिया गया। रामबहादुर राय से बात करने पर क्रांति की वो लौ आज भी सुलगती दिखती है जिसकी अलख उन्होंने नौजवानी के दिनों में जगाई थी।
हिंदी पत्रकारिता के इस हीरो से भड़ास4मीडिया के रिपोर्टर अशोक कुमार ने विस्तार से बात की। सुबह 11 बजे वैशाली स्थित उनके निवास से शुरू हुआ बातचीत का सिलसिला दो चरणों में शाम 4 बजे पंचशील पार्क के पास स्वामीनगर में समाप्त हुआ। सच, साफ और बेबाक तरीके से बोलने-जीने वाले रामबहादुर राय ने कई ऐसी बातें कहीं जिसे आमतौर पर कोई पत्रकार कहने की हिम्मत नहीं कर पाता। पेश है इंटरव्यू के अंश---
-हर किसी का जीवनचक्र जन्म के साथ शुरू होता है। बातचीत भी यहीं से शुरू करते हैं।
-जन्म 1 जुलाई 1946 को हुआ मगर यह सरकारी तारीख है। वास्तव में मेरा जन्म 4 फरवरी 1946 को पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के सेनारी गांव (तहसील- मुहम्मदाबाद) में हुआ। ठीक-ठाक गांव है। हमारे गांव में सामाजिक लिहाज से सभी जाति और धर्मों के लोगों के प्रेम से रहने की परंपरा है। छोटी सी नदी है ‘गंगहर’, 17-18 किलोमीटर लंबी नदी है। यह हमारे यहां ही आकर खत्म होती है। किसान परिवार है। दो जगह खेती है। गाजीपुर के अलावा बंगाल के मालदा जिले में भी पिछले डेढ़-दो सौ साल से खेती होती है। फिलहाल वहां मेरे भाई रहते हैं। पिताजी अध्यापक थे, मगर सरकारी नौकरी छोड़कर वह खेती में लग गए। शुरू में 10-11 साल तक पिताजी के साथ बंगाल में ही रहा। पढ़ाई छठवें दर्जे से शुरू हुई। एक ही बार पांचवी की परीक्षा दी फिर छठवीं में चला गया। गाजीपुर में अवथही मिडिल स्कूल है, वहां से 8वीं पास की। गांव से 3 किलोमीटर दूर एसएम इंटर कालेज से 9वीं क्लास पास किया। इसी समय मैंने जिंदगी में पहली बार खुद फैसला लिया। मां से कुछ पैसे मांगे और कहा कि अब गाजीपुर जाकर पढूंगा। वहां सीपीआई के सांसद थे सरयू पांडे। वह पिताजी के मित्र थे और मेरे एकमात्र परिचित। मैं उनसे मिला और बताया कि 9वीं पास कर गया हूं। उन्होंने गाजीपुर में 10वीं में एडमिशन करवा दिया। 10वीं का पेपर देने के बाद एक दिन एक ज्योतिषी मिला। मेरा हाथ देखकर उसने बताया कि मैं फेल हो जाऊंगा। मेरी उत्सुकता बढ़ गई क्योंकि पढ़ाई मैंने अच्छे ढंग से की थी। जिस दिन रिजल्ट निकलना था, मैं सुबह से ही अखबार ढूंढ़ता रहा। कई जगह अखबार ढूंढ़ने के बाद एक जगह इंतजार करने लगा। वहीं प्रकाश टाकिज में टिकट लेकर फिल्म देखने चला गया। तीन घंटे बाद निकला तो अखबार आ चुका था। मैं पास हो गया। ज्योतिषी की बात अब भी दिमाग में थी तो यह सोच कर कि कहीं मैं गलत तो नहीं देख रहा, दो-तीन और लोगों से दिखाया। सन् 63 में बनारस आ गया। 11वीं में हरिश्चंद्र इंटर कालेज में दाखिला लिया। यहां से 12वीं करने के बाद बीएचयू के डीएवी डिग्री कालेज से पोलिटिकल साइंस (आनर्स) में ग्रेजुएशन और इकोनामिक्स में एमए किया। फिर लॉ और रिसर्च किया। नौवीं कक्षा में पढ़ने के दौरान ही अखबार पढ़ने लगा था। बनारस से निकलने वाला ‘आज’, इलाहाबाद का ‘लीडर’ और कलकत्ता का ‘स्टेट्समैन’ पढ़ता था।
-छात्र राजनीति से किस तरह जुड़े और फिर सक्रिय हुए?
--जब मैं हरिश्चंद्र इंटर कालेज में था तो गर्मी के दिनों में एक खबर पढ़ी। एबीवीपी की कोई खबर थी। सोचा कि साल भर से बनारस में हूं लेकिन इस बारे में कभी सुना नहीं। सो उत्सुकता जगी। साथियों से विद्यार्थी परिषद के बारे में पूछा। इस तरह विद्यार्थी परिषद की गतिविधियों में रुचि लेना शुरू किया। 1965 में संगठन का बिहार और उत्तर प्रदेश का संयुक्त सम्मेलन हुआ। पंडित दीन दयाल उपाध्याय, प्रो. राजेंद्र सिंह और प्रकाश वीर शास्त्री वक्ता थे। पहली बार इसमें शामिल हुआ। उन्हीं दिनों बनारस में एक आंदोलन खड़ा हुआ। तब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे। सेक्युलरिज्म को मजबूत करने के लिए सरकार ने फैसला किया कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ‘मुस्लिम’ और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से ‘हिंदू’ शब्द हटा दिया जाए। इस आंदोलन का हिस्सा मैं भी बना और इसी तरह से छात्र राजनीति में सक्रिय हुआ। तभी मानस बना कि पढ़ाई के बाद नौकरी नहीं करनी है। उन्हीं दिनों कैंपस में छात्रों की अपनी मांग को लेकर आंदोलन हुआ। मैने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। तब कालूलाल श्रीमाली बीएचयू के वीसी थे। कुल 46 छात्र एक्सपेल्ड किए गए। वीसी ने कहा कि जो माफी मांगेंगे उन्हें वापस ले लिया जाएगा। मुझे नहीं मांगना था, नहीं मांगा और निकाला गया। उन्हीं दिनों मुझे एबीवीपी का संगठन मंत्री बना दिया गया।
सन् 1971 फरवरी की बात होनी चाहिए। जेपी यानि लोकनायक जयप्रकाश नारायण से नजदीकी का अवसर एक सेमिनार में मिला। गांधी विद्या संस्थान में सेमिनार था। विषय था 'यूथ इन रिवोल्ट' (युवा विद्रोह)। सन 66-68 तक पूरी दुनिया में छात्र विद्रोह हो रहा था। फ्रांस में शुरू हुआ यह सिलसिला यूरोप होते हुए भारत आया। तीन दिवसीय सेमिनार था। बीएचयू से मैं डेलिगेट के रूप में गया था। तभी जेपी को करीब से देखा। पहली बार जेपी के प्रति आदर का भाव पैदा हुआ। लगा कि इनके कहने पर कुछ भी किया जा सकता है। उस समय बांग्लादेश (तब का पूर्वी पाकिस्तान) में चुनाव के बाद शेख मुजीब की पार्टी जीती थी। शेख मुजीब के नेतृत्व में शासन के अधिकारों के लिए विद्रोह हुआ। मुजीब ने ‘मुक्तिवाहिनी’ नाम से सेना बनाकर लड़ाई की। जेपी शेख मुजीब के संघर्ष की हिमायत कर रहे थे और बीएचयू में आए थे। मैं उन्हें सुनने गया। भाषण ‘टाउन हॉल’ में था। मैं काफी प्रभावित हुआ। सभा खत्म हुई तो मैं उनके पास गया। मैंने साफ कहा कि मैं आपके भाषण से प्रभावित हूं। मैं क्या कर सकता हूं? उनकी पत्नी प्रभावती उनके साथ ही थीं। जेपी ने उनकी तरफ देखा। उन्होंने कहा कि सुबह 8 बजे नास्ते पर बुला लो। मैं सुबह गया। उन्होंने कहा कि कुछ भी करने से पहले बांग्लादेश में जाकर संघर्ष देख आओ। तुम्हारा मन बने तो मैं 2-3 चिट्ठियां दे दूंगा ताकि तुम्हें वहां दिक्कत न हो। मैंने साथियों से बात की। मेरे साथ एक साथी और तैयार हुआ। हम दो लोग राजशाही और ढाका के बीच 40 दिनों तक घूमते रहे। मई में वापस बनारस लौटा। मेरे लौटने पर छात्र संघ ने सभा की। सभा बहुत बड़ी थी। उसमें बीएचयू के वीसी, राजनारायण जो बड़े नेता थे, ‘आज’ अखबार के मालिक सत्येंद्र कुमार गुप्त और ‘गांडीव’ के डा. भगवान दास अरोड़ा भी मौजूद थे। मैने वहां जो देखा था, वह बताया। बोलकर मंच से उतरा तो सत्येंद्र कुमार गुप्त ने बुलाया। उन्होंने कहा कि दफ्तर आओ। दफ्तर में कहा कि सब लिख डालो। वह मेरा पहला लेख था, जो लगातार तीन दिन तक छपा।
उन दिनों चौधरी चरण सिंह सीएम होते थे। बनारस में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ आए थे। छात्र संघों पर रोक के कारण लोगों ने तय किया कि सीएम और पीएम को काला झंडा दिखाया जाए। सभा के एक दिन पहले मुझे ढूंढ़ने के लिए बीएचयू के 25-26 हॉस्टलों पर छापा मारा गया। मैं बच गया। सभा में मै काला झंडा दिखाने में सफल हो गया। मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। फिर विद्यार्थी परिषद का राष्ट्रीय सचिव और बिहार प्रदेश के संगठन का जिम्मा मिला। तब केंद्र पटना हो गया। 73, जुलाई में 1 साल घूमने-फिरने के बाद संगठन बना। सन् 73, जुलाई में ही पटना छात्रसंघ का चुनाव हुआ। अध्यक्ष पद पर लालू यादव, जनरल सेक्रेट्री के लिए सुशील मोदी और सेक्रेट्री पद पर रविशंकर जीते। इस तरह से छात्रसंघ का मंच मिला। अरुण जेटली दिल्ली में विजयी रहे थे। उन्होंने राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया। मैं लालू यादव सहित कई लोगों को लेकर पहुंचा। वहां छात्र संघर्ष समिति बनी। 18 मार्च 1974 में बिहार विधानसभा के घेराव का फैसला हुआ। देश भर का विपक्ष मन से टूटा था। मुझे याद है विपक्ष के कई नेता जिनमें कर्पूरी ठाकुर, कैलाशपति मिश्र, सतेंद्र नारायण सिंह, रामानंद तिवारी आदि थे, पूछते थे कि कितने लोग आएंगे। लोग रात से ही आने लगे। लालू यादव और नीतीश कुमार पटना विवि से ही विधानसभा पहुंचे। उसी समय बिहार में आंदोलन शुरू हुआ। दूसरे दिन जेपी से मिले। जेपी कमरे में सोए थे। उन्होंने कागज निकाला और सवाल पूछे। मैने जवाब दिया और उनसे छात्र आंदोलन के पक्ष में बयान देने का आग्रह किया। उन्होंने पाया कि छात्र आंदोलन का पक्ष सही है। 22 मार्च को उन्होंने बयान दिया और 8 अप्रैल को मौन जुलूस का नेतृत्व किया। जुलूस खत्म हुआ तो जेपी ने बुलाया। कहा कि यहां से चले जाइए। डीएम आपको गिरफ्तार करने के लिए ढूंढ़ रहा है। उन्होंने आशंका जताई कि मुझे गोली मरवा दिया जाएगा। मैं हट गया। दूसरे दिन सत्याग्रह था। मैं शामिल हुआ। यहीं गिरफ्तार कर लिया गया। तब पहली बार मुझ पर मीसा लगा। 10 महीने तक बंद रहा। फिर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया और नवंबर 74 में मैं छूटा। इमरजेंसी के दौरान 30 जून को बनारस में गिरफ्तार हुआ। इमरजेंसी खत्म हुई तो कई साथी विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे। मुझे लगा कि यह लक्ष्य से समझौता करना है। मैंने कोशिश नहीं की।
-एक्टिविज्म से अचानक जर्नलिज्म की ओर कैसे रुख किया?
--जैसा मैंने बताया कि कई साथी चुनाव लड़ रहे थे। तब मैंने सोचा कि आंदोलन की बात बताने के लिए दूसरे रास्ते की तलाश करनी चाहिए। तब पत्रकारिता में आया। सन 77 में गाजीपुर लोकसभा सीट से जनता पार्टी की ओर से मेरा और गौरीशंकर का नाम था। मैने कोशिश नहीं की। 79 में जनता पार्टी ने फिर बनारस से लड़ने को कहा। सन् 1991 में बीजेपी की ओर से बनारस से लड़ने का प्रस्ताव आया था। हमारा नाम तय था, अगर हम चाहते। इतना दबाव था कि सुबह-सुबह भीड़ लगती थी। एक दिन गोविंदाचार्य बनारस आए। कहा कि लखनऊ बुलाया जा रहा है। मैं दुविधा में था। एक दिन झोला उठाकर हरिद्वार चला गया। यहां 6-7 महीने रहा। सुबह 5 बजे उठ जाता। गोशाला जाता। वहीं दूध लेकर थन का दूध ही पी जाता। पहाड़ की ओर जाता तो 9 बजे लौट कर आता। दिन में अंकुरित अन्न और रात को एक रोटी खुद से बनाकर खाता। पूरे दिन पढ़ाई करता। यह सिलसिला 6 महीने चला। सन् 78 में राजनीति देखकर मन खिन्न हो गया। जैसा सोचता था, राजनीति वैसी नहीं थी। हरिद्वार में रहने के दौरान ही दो घटनाएं हुई। पहला, जेपी के मरने की अफवाह और दूसरा जनता पार्टी की सरकार नहीं रहेगी, वह डिजॉल्व होगी। जेपी की मृत्यु की वास्तविक खबर भी यहीं मिली। हरिद्वार से लौटकर सीधे पटना गया। वहां जेपी के राजकीय सम्मान सहित तीन-चार बातों को लेकर विवाद था। सभी बड़े दिग्गज नेता पटना पहुंचे थे। एक होटल में चंद्रशेखर और बगल के कमरे में अटल बिहारी वाजपेयी ठहरे थे। मैने रात बारह बजे चंद्रशेखर को जगाया और चीजें तय कीं। फिर जनता पार्टी के सभी घटक दलों की राय थी कि मुझे चुनाव लड़ना चाहिए। चुनाव का काफी दबाव था।
तब हिंदुस्तान समाचार {न्यूज एजेंसी} में बालेश्वर अग्रवाल प्रधान संपादक और जनरल मैनेजर थे। मैने उन्हें पत्र लिखा कि मैं हिंदुस्तान समाचार में शामिल होना चाहता हूं, अगर आप अवसर दें तो। एक अन्य ऑफर था। मेरा सोचना था कि स्वतंत्र काम करूं। तब प्रिंटिंग प्रेस खोलने का फैसला किया। मगर मेरे एक मित्र ने मना किया। (मित्र का नाम पूछने पर राय साहब बताने से इंकार करते हैं, सिर्फ इतना कहते हैं कि बहुत बड़े आदमी थे, अभी जितने लोग हैं, उनसे भी बड़े} कहा कि तुम्हारा स्वभाव कारोबारी नहीं है। उन्होंने ही मुझे पत्रकारिता की ओर आने को कहा। हां, तो बालेश्वर अग्रवाल ने पत्र के जवाब में तीन बातें लिखी, आप आएंगे तो हमारे समाचार एजेंसी को प्रतिष्ठा मिलेगी। हम आपको अधिक पैसा नहीं दे पाएंगे। और यह कि मैं इन-इन तारीखों में दिल्ली में हूं, आओ तो बात करेंगे। सन् 1979, अक्तूबर में मैं दिल्ली आया। उन्होंने कहा कि मोरार जी भाई की लिस्ट में तुम्हारा नाम सबसे ऊपर है (बालेश्वर जी मोरार जी के करीबी थे) यहां क्या कर रहे हो? मैने कहा कि मैं डेस्क पर काम नहीं करूंगा। रिपोर्टिंग करूंगा। संस्थान के नियम के अनुसार मुझे ट्रेनिंग के लिए भोपाल भेजा गया। (बीच में कहते हैं, मेरे ट्रेनिंग की बात सुनकर एसपी सिंह, अशोक टंडन और दीनानाथ मिश्र को अजीब लगा था। उन्होंने टोका भी था) मैंने भोपाल में अपने जानने वालों को चिठ्ठी लिखी। पहुंचा तो उसी दिन सुंदर लाल पटवा के खिलाफ प्रदर्शन था। मेरे पहुंचने की सूचना पाकर लोगों ने अखबारों में मेरे द्वारा प्रदर्शन का नेतृत्व करने संबंधी खबर दे दी थी। वहां के इंचार्ज ने खबर दिखाकर कहा कि आप ट्रेनिंग लेने आएं हैं या आंदोलन करने। चूंकि खबर छप गई थी इसलिए मैंने नेतृत्व किया।
1980 के लोकसभा चुनाव के समय भोपाल में ही था। दो-तीन अच्छी खबरें लिखीं, जो चर्चा में रही और रेडियो तथा स्टेट्समैन अखबार जिसके ब्यूरो प्रमुख अमिताभ बच्चन के ससुर तरुण भादुड़ी थे, ने उसका फालोअप भी किया। यहीं अर्जुन सिंह से परिचय हुआ। ट्रेनिंग छह महीने की थी लेकिन बालेश्वर अग्रवाल ने मुझे 2 महीने बाद ही दिल्ली बुला लिया। उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें अरुणाचल भेजना चाहता हूं। 80-82 तक इटानगर में रहा। सन 82 में जब इंदिरा गांधी दुबारा सत्ता में आईं तो बालेश्वर जी को हटा दिया गया। मैने मन बना लिया कि अब हिंदुस्तान समाचार में नहीं रहना है। मैं सामान समेट कर दिल्ली पहुंचा। बालेश्वर जी ने सलाह दी कि इस्तीफा मत दो। 6 महीने की छुट्टी ले लो। एक दिन राजमाता विजयराजे सिंधिया से भेंट हो गई। पूछा कि कहां हो? मैने कहा कि रहने की जगह नहीं है। उन्होंने कहा कि हमारे पास बहुत जगह है, आ जाओ। उन्होंने एक कमरे का सेट और एक नौकर दिला दिया।
-इसके बाद किस संस्थान से जुड़े?
--सन् 82 में ही जनसत्ता के निकलने का विज्ञापन छपा। अप्लाई किया। इंटरव्यूह के लिए प्रभाष जी का पत्र आया। इंटरव्यू प्रभाष जी, जार्ज बर्गीज और एलसी जैन ने लिया। 83, जुलाई में रिपोर्टर के रूप में जनसत्ता ज्वाइन कर लिया। प्रभाष जी ने साल भर बाद ही चीफ रिपोर्टर बना दिया। उन्हीं दिनों राजेंद्र माथुर ‘नवभारत टाइम्स’ में आ गए। वे मुझे बुलाते रहें, मैं टालता रहा। फिर एक दिन मैंने हां कर दिया। सन् 86 में स्पेशल कारस्पांडेंट के रूप में नवभारत टाइम्स चला गया। माथुर साहब के रहने तक वहां था। इधर प्रभाष जी बीच-बीच में मुझे बुलाते रहते थे। कहते थे कि आ जाओ, तुम्हारा अखबार जनसत्ता है। 91 में फिर जनसत्ता लौट गया। 94-95 तक ब्यूरो चीफ था। 95 से 2004 तक जनसत्ता समाचार एजेंसी का संपादक रहा। फिर 'प्रथम प्रवक्ता' में आ गया।
(राय साहब अचानक राजेंद्र माथुर के बारे में बताने लगे, उनकी आवाज क्षण भर के लिए लड़खड़ाई, आंखें आकाश में गड़ गईं)
जिस दिन माथुर साहब का देहांत हुआ, तीन दिन पहले मैं वीपी सिंह के चुनाव दौरे को कवर कर रहा था। फिरोजाबाद में सुबह वीपी सिंह का एक बड़े परिवार में नाश्ता था। उसके बाद हमें बदायूं जाना था। गाड़ी में बैठने की बात आई तो मुझे अचानक लगा कि यात्रा में मुझे आगे नहीं जाना है। मेरे साथ 'टीओआई' की अनीता कात्याल और 'अमर उजाला' के प्रबाल मैत्र थे। मैंने उन्हें बताया। मेरे साथ प्रबाल भी आ गए। हम आगरा पहुंचे। वहां अमर उजाला के मालिक अशोक अग्रवाल से मिले और उनसे दिल्ली का टिकट कराने को कहा। दिल्ली पहुंच कर अपने लौटने की बात आफिस में बताने के लिए फोन किया। कई बार घंटी बजने के बाद माथुर साहब के पीए विश्वंभर श्रीवास्तव (वर्तमान में लालकृष्ण आडवाणी के साथ) ने फोन उठाया। उन्होंने माथुर साहब के हार्ट अटैक की खबर दी।
मैं मानता हूं कि माथुर साबह की मौत नभाटा के अंदर की समस्याओं के कारण हुई। राजेंद्र माथुर को एडिटर गिरीलाल जैन ने आग्रह पूर्वक नवभारत टाइम्स बुलाया था। माथुर साहब का नभाटा को लेकर एक सपना था। यह सपना नभाटा को एक मुकम्मल अखबार बनाने का था। जब तक प्रबंधन अशोक जैन के पास था, उन्हें पूरी आजादी थी। मगर जब समीर जैन आए और उन्होंने टीओआई को प्रोडक्ट व ब्रांड के रूप में खड़ा किया, तब उनको अड़चन आने लगी। उन्हें लगा कि संपादक को संपादकीय के अलावा प्रबंधन के क्षेत्र का काम भी करना होगा तो वो द्वंद में पड़ गए। इससे उन्हें शारीरिक कष्ट हुआ। अपने सपने को टूटते-बिखरते हुए वे नहीं देख पाए। मृत्यु के कुछ दिनों पहले मेरी उनसे लंबी बातचीत हुई थी। एक दिन उन्हें फोन कर मैं उनके घर गया। माथुर साहब अकेले ही थे। वह मेरे लिए चाय बनाने किचन की ओर गए तो मैं भी गया। मैंने महसूस किया था कि वो परेशान हैं। मैने पूछा- क्या अड़चन है। उन्होंने कहा- देखो, अशोक जैन नवभारत टाइम्स पढ़ते थे। उनको मैं बता सकता हूं कि अखबार कैसे बेहतर बनाया जाए। समीर जैन अखबार पढ़ता ही नहीं है। वह 'टाइम्स ऑफ इंडिया' और 'इकोनामिक टाइम्स' को प्रियारिटी पर रखता है। उससे संवाद नहीं होता। उसका हुकुम मानने की स्थिति हो गई है। यही माथुर साहब का द्वंद था।
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इस इंटरव्यू पर अपनी प्रतिक्रिया रामबहादुर राय तक पहुंचाने के लिए 09350972403 पर एसएमएस भेज सकते हैं या फिर
एनडीटीवी में भी काफी पक्षपात : राजेंद्र यादव
Tuesday, 04 August 2009 15:51 जयप्रकाश त्रिपाठी भड़ास4मीडिया - इंटरव्यू

भड़ास4मीडिया से विशेष बातचीत में प्रख्यात साहित्यकार और 'हंस' के संपादक राजेंद्र यादव बोले- ये मीडिया सिर्फ 'मीडिया' नहीं है : राजेंद्र यादव हिंदी वालों के दिल-ओ-दिमाग पर लगातार छाए रहते हैं। कभी खलनायक के रूप में तो कभी नायक के रूप में। साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के माध्यम से हिंदी के बौद्धिक लोगों को जी-भर खुराक देने वाले राजेंद्र यादव साहित्य के स्थापित और चर्चित नाम हैं। भड़ास4मीडिया के कंटेंट हेड जयप्रकाश त्रिपाठी ने मीडिया और साहित्य के कई मुद्दों पर राजेंद्र यादव से खुलकर बातचीत की। पेश है इस विशेष इंटरव्यू के कुछ अंश :
-पूंजीवादी मीडिया के खिलाफ आज के दौर में जनता का पक्ष किस तरह सामने आना चाहिए? जैसा कि चुनाव के दिनों में काफी हल्ला रहा, लाखों-करोड़ों रुपये लेकर विज्ञापन को खबरों के रूप में छापने वाला क्या यह 'दलाल' मीडिया है? क्या उसके खिलाफ व्यापक जनाधार वाली मोरचेबंदी जरूरी नहीं होती जा रही है?
-देखिए, एक चीज है, ये सही है कि इस समय मीडिया का वर्चस्व है, खास तौर से दृश्य-मीडिया का। टीवी चैनल्स बिल्कुल छाए हुए हैं। सैकड़ों चैनल हैं और सैकड़ों आ भी रहे हैं। चैनलों की भीड़ में लोगों को समझ में नहीं आएगा कि कौन-सा देखें, कौन-सा नहीं देखें। इस समय सही बात ये है, जैसाकि अखबारों में निकला, हमारे यहां ('हंस' में) भी छपा, टीवी पर दिखा कि जब पैसा लेकर खबर बनाएंगे, दिखाएंगे तो बात बिल्कुल उल्टी हो जाएगी। जिससे जितना पैसा लिया, उसको उतना कवरेज दिया। प्रिंट मीडिया में भी, दृश्य में भी। लोगों ने अपने विरोधियों की खबर दबाने के लिए पैसे दिए। एक तरह से वो चुनाव का दंगल हो गया। सवाल ये है कि ये जो अंधेरगर्दी चल रही है, ये जो धुंआधार हो रहा है, तो अब इसके खिलाफ होना क्या चाहिए? एक तो ये जानिए कि दृश्य मीडिया मुख्य रूप से मध्यम वर्ग का है। वही इसका दर्शक और श्रोता है। तो उनका मीडिया है। यदि कोई अनहोनी हो जाए, तो ये मध्यवर्गीय लोग कभी भी भीड़ बनाकर टीवी चैनलों के दफ्तरों पर नहीं जाएंगे। ये घरों में रहेंगे, गाली देते रहेंगे और सोते रहेंगे। लेकिन कहते हैं न कि बाजार मजबूर कर देता है। आप अभिशप्त हैं, चीजें खरीदने के लिए। और वो निर्लिप्त हैं बेंचने के लिए।
देखिए कि मीडिया सिर्फ खबरें नहीं बेच रहा है, ये मीडिया सिर्फ मीडिया नहीं है, ये विज्ञापनों के माध्यम से कंज्यूमर्स को हजारों चीजें बेच रहा है। जो हम चाहते नहीं, जिसकी हमे जरूरत नहीं, वह भी हमे खरीदने के लिए ललचाता रहता है। ऐसे में या तो आपके पास एक समानांतर या पैरलल किस्म का मीडिया हो, जो इसलिए संभव नहीं है कि ऐसे एक-एक मीडिया संस्थान स्थापित करने में सैकड़ो-सैकड़ो करोड़ की पूंजी लग रही है। वह संस्थान, चाहे प्रिंट का हो या दृश्य का। इतना कॉस्टली हो गया है कि जब तक आपके पास दो-तीन सौ करोड़ न हों, आप चैनल चलाने की बात ही नहीं सोच सकते हैं। अखबार तो भी सौ-पचास लाख में चला सकते हैं, लेकिन चैनल नहीं। इतनी पूंजी लगाने के बावजूद आप में क्षमता होनी चाहिए कि दो-तीन साल घाटा भी बर्दाश्त करें।
ऐसी स्थिति में दो ही विकल्प बचते हैं। क्योंकि पैरलल हम चला नहीं सकते। आज मैं जो चैनल देखता हूं, जो मुझे सबसे विश्वसनीय चैनल लगता है, एनडीटीवी है। वहां भी काफी पक्षपात दिखाई देता है। हो सकता है, वह विज्ञापन के रूप में प्रायोजित खबरों का पैसा न लेते हों। आपको शायद याद होगा। दो-तीन साल पहले हमने 'हंस' का एक विशेषांक खबरिया चैनलों पर प्रकाशित किया था। उसके बाद चैनल में काम करने वाले लेखकों की कहानियों पर एक किताब निकाली थी। उन कहानियों से जो सच सामने आया, पहली बार जान पड़ा कि चैनलों के भीतर अद्भुत कहानियां है। चैनलों के भीतर हालात भयानक हैं। कि कैसे एक घटना को बनाया जाता है, और उसको कवर करके उस पर हंगामा क्रिएट किया जाता है। जैसे चैनल्स के रिपोर्टर्स ने एक दूध वाले से कहा कि पहले हम तुम्हारे कपड़ों में आग लगा देंगे। इसके बाद फोटो खींचकर आग बुझा देंगे। आग लगा दी, बुझाया नहीं, उस पर फिल्म बनाने लगे और वह देखते ही देखते जिंदा जल गया। मर गया।
ऐसा पहले अमेरिकी मीडिया कर चुका है। पंद्रह-बीस साल पहले वहां का एक अखबार व्यवसायी था। बाद में उसका बेटा उसके साथ काम करने लगा। अखबार निकालने लगा। उसने नए धंधे का नया तोड़ निकाला। सत्य कथाओं का प्रकाशन। उसका बचपन का एक दोस्त था। उसने दोस्त से कांटेक्ट किया कि वह उसे सच्ची-ताजी अपराध कथाएं बताए, वह उन्हें ही छापेगा। सच्ची घटनाएं छपने लगीं। अखबार की मांग आसमान छूने लगी। फिर उससे कहा कि एक्सक्लूसिव खबरों के लिए तुम अपराध आयोजित करो। हम उनकी फोटो लेंगे, अब सचित्र छापा करेंगे। अब हुआ ये कि वे घटनाएं सबसे पहले उसके अखबार में छपने लगीं। धीरे-धीरे वह इतना पॉवरफुल हो गया कि उसकी तूती बोलने लगी। घटनाएं भी खूब होने लगीं। जो भी घटना होती, सबसे पहले उसके ही अखबार में छप जाती। उसी दौरान वहां किसी राष्ट्राध्यक्ष का प्रोग्राम बना। उसकी एक्सक्लूलिव खबर बनाने के लिए उन्होंने उसकी हत्या की साजिश रची। होता यह था कि उधर घटना होती, इधर पहले से खबर बना ली जाती। राष्ट्राध्यक्ष की हत्या की साजिश सफल नहीं हो सकी लेकिन मर्डर की पहले से तैयार खबर अखबार में छप गई। उसके बाद वह अखबार ऐसा ध्वस्त हुआ कि फिर कभी न उठ सका। जो अपने को सर्वशक्तिमान मान लेता है, किसी समय वह भी इसी तरह ध्वस्त होता है। यही हाल आज भारतीय मीडिया का होता जा रहा है। इनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता से सूचनाओं को लेकर जिस तरह की मनमानी बढ़ती जा रही है, यही उनके विनाश का कारण भी बनेगी। ये पूंजीवादी मीडिया बाहरी नहीं, अपने आंतरिक कारणों से कभी बेमौत मरेगा। क्योंकि यह इतना बलवान हो चुका है कि किसी बाहरी मार से नहीं मरेगा। ये अपने ही अंतरविरोधों, आपसी 'युद्ध-प्रतिद्वंद्विता' या अपने बोझ से मरेगा। जैसाकि मार्क्स ने भी कहा है, पूंजीवाद अपनी मौत मरेगा, तो इस वैभवशाली मीडिया पर भी वही बात लागू होती है। तो इस खबरफरोश मीडिया के खिलाफ जनता की ओर से बस यही उम्मीद की जा सकती है। जहां तक इस मीडिया के जनता के साथ खड़े होने की बात है, यह किसी आंदोलन को खड़ा कर सकता है, लेकिन उसके साथ खड़ा नहीं हो सकता। यही इसके बाजार और अस्तित्व का तकाजा है।

राजेंद्र यादव से बातचीत करते भड़ास4मीडिया के कंटेंट हेड जयप्रकाश त्रिपाठी
-उदय प्रकाश सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने लगे हैं। उनके खिलाफ लेखकों ने बहिष्कार का ऐलान किया। वह हर तरह की राजनीतिक विचारधारा से अपने को मुक्त घोषित कर रहे हैं? इस पर आपका क्या सोचना है?
जब उदय प्रकाश के खिलाफ लेखकों की सूची जारी की गई थी, मुझसे भी समर्थन मांगा गया था। मैं उस समय तक कुछ जानता नहीं था। मैंने उनसे पूछा था और कहा था कि जब तक कोई बात मैं पूरी तरह न जान लूं, उस पर कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं। मैं पहले पता करूंगा कि आखिर सही बात क्या है? जो लोग उस सूची में मेरा नाम भी शामिल करना चाहते थे, बाद में उनकी बातों की पुष्टि हो गई।
देखिए, उदय प्रकाश बहुत बेजोड़ साहित्यकार हैं। यदि इस समय हिंदी कथाकारों में कोई एक नाम लेना हो, तो वह हैं उदय प्रकाश। लेकिन जरूरी नहीं है कि व्यक्तिगत रूप से भी वह वैसे ही बेजोड़ हों। वह इस समय 'आत्म-प्रताड़ना' जैसी बीमारी के शिकार हैं। उन्हें लगता है कि उनके खिलाफ सब लोग षड्यंत्र करते हैं, उन्हें सब लोग सताते हैं, उन्हें पुरस्कार नहीं देते, उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार नहीं मिला, उन्हें कोई नौकरी नहीं दे रहा, आदि-आदि। बराबर, चौबीसो घंटे उनकी यही शिकायतें रहती हैं। ये जो चीजें हैं, हमेशा आत्म-दया, आत्म-करुणा, कुंठा कि सारी दुनिया उनके खिलाफ है, उसका कारण वो ये मानते हैं कि बाकी जो हिंदी वाले लोग हैं, बहुत टुच्चे हैं, अनपढ़ लोग हैं, बेवकूफ हैं और सिर्फ वे (उदय प्रकाश) ही एक महान लेखक हैं। सिर्फ उन्होंने ही अच्छी किताबें लिखी हैं, बाकी सब उल्लू के पट्ठे हैं, उनसे जलते और उनके रास्ते की बाधा हैं। जब वह इस तरह सोचेंगे, इस तरह की बातें करेंगे तो क्या कहा जाए!
गोरखपुर वाले प्रकरण पर एक बार मेरे पास भी उनका फोन आया। छूटते ही उन्होंने मुझसे सवाल किया कि ये सब क्या हो रहा है? मैंने कहा, हो क्या रहा है, जैसा कर रहे हो, वैसा हो रहा है। वे कहने लगे, मेरा वह पारिवारिक मामला था, मेरे भाई की स्मृति में वह कार्यक्रम हुआ था। उनकी बरसी का आयोजन था। मैं उसमें गया था। तो, मैंने उनसे पूछा कि जब वह निजी कार्यक्रम था तो सार्वजनिक तरीके से क्यों आयोजित किया गया। यदि सार्वजनिक तरीके से हुआ तो पर्सनल कैसे रहा? क्या आप जानते नहीं थे कि वह योगी आदित्यनाथ 'वहां का भयंकर हत्यारा, गुंडा, बीजेपी का बदमाश' भी वहां मंच पर बैठा था? और आपने उसके हाथ से पुरस्कार ले लिया, क्यों? क्या यह सब अनजाने में हो गया? इतने मासूम, इतने दयनीय मत बनो। मैंने उस दिन उदय प्रकाश को बहुत डांटा था। तुम्हारे भीतर एक ऐसी कुंठा है, जो लगता है कि हर आदमी तुम्हारे खिलाफ षड्यंत्र करता है। मेरा खयाल है कि तुम खुद अपना कोई रास्ता तलाश लो। मुझे लगता भी है कि वह कोई नया रास्ता तलाश रहे हैं।
वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं। सवाल उठता है कि उदय प्रकाश जैसा प्रबुद्ध लेखक क्या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मतलब नहीं जानता? वह उसका समर्थन कर रहा है तो उसका क्या मतलब है? या तो उसे अवसरवादी कहेंगे या कुछ और। मैं कहना नहीं चाहता, लेकिन गांव का एक बड़ा वैसा मुहावरा है कि 'सबसे सयाना कौवा, सबसे ज्यादा गू खाता है'। पक्षियों में सबसे सयाना। गंदी चीजों पर सबसे ज्यादा चोंच मारता फिरता है, हर जगह।
सुना है कि अब वह अपने समस्त राजनीतिक सरोकार खत्म कर लेने की बातें भी करने लगे हैं....कि किसी राजनीतिक विचारधारा के लिए प्रतिबद्ध नहीं, कि किसी भी तरह की राजनीतिक तानाशाही के खिलाफ हैं, आदि-आदि। तो राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक तानाशाही, दोनों अलग-अलग दो बाते हैं। एक बाहर से है, दूसरी खुद की। लेखक के साथ कोई राजनीतिक तानाशाही न हो, यह एक ठीक बात है, लेकिन लेखक कहे कि मेरी कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है, ये अलग बात हो गई। और ये दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। जब वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं तो क्या वह उनके राजनीतिक विचारों का संकेत नहीं? क्या वह नहीं जानते कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद राजनीतिक बात है, और किस तरह के लोगों की राजनीतिक विचारधारा की बात है? अगर मैं उदय प्रकाश के बारे में इन बातों को सही मानूं तो मैं उनसे एक बात कहना चाहूंगा कि 'कोई भी नया कपड़ा पहनने से पहले अपने सारे कपड़े उतार कर नंगा होना पड़ेगा'!
-विचारधारा को लेकर एक सवाल आप पर भी बनता है। आपने कहीं कहा है कि विचारधारा नृशंस बनाती है। कैसे?
देखिए, उस बातचीत के दौरान मुझे ऐसा लगा था। अभी भी लगता है। लड़ने के लिए, युद्ध के लिए, और उसके बाद उन विचारों के हिसाब से जो शासन प्रणाली बनती है, तो वह उस राज्य के माध्यम से अपने विचारों को लोगों पर लागू करने की अवांछित कोशिशें ज्यादा करती है। जिन विचारों की दृढ़ता के साथ आप कोई संघर्ष करते हैं, लड़ते हैं, युद्ध करते हैं, युद्ध जीत जाने के बाद जब आप शासन में आएंगे, तो उसी एक-पक्षीय वैचारिक नृशंसता के साथ अपनी शासन प्रणाली चलाना चाहेंगे। जैसे आज माओवादी, जिस साहस, एकता और हिम्मत से लड़ रहे हैं, शासन में आ जाने के बाद वह उसी मजबूती से अपने विचारों को लागू करना चाहेंगे। जहां-जहां इस्लामी शासन प्रणाली आई, वहां भी ऐसा हुआ। उनकी नजर में, उनके विचारों के हिसाब से जो काफिर थे, दमन का शिकार हुए। लेकिन हमारे यहां बात दूसरी है। जब संग्राम होता है तो उसके नायक दूसरे होते हैं, सत्ता में आ जाने के बाद दूसरे। जैसे महात्मा गांधी। जब स्वतंत्रता सेनानी गांधीवादी तरीके से संग्राम जीत कर राजसत्ता में आगे तो गांधी चले गए। हमने जो प्रजातंत्र की शासन प्रणाली अपनाई, वो शब्दशः वैसी नहीं थी, जैसा गांधी जी चाहते, कहते थे। गांधी जी व्यक्ति-केंद्रित थे। वह उस समय की पैदाइश थे, जब सारी चीजें व्यक्ति-केंद्रित होती थीं। अहिंसा तो सिर्फ कहने को उनका राजनीतिक अस्त्र था।
-गांव के प्रश्न 'हंस' से नदारद क्यों रहते हैं? वहां के प्लेटफॉर्म से स्त्री-प्रश्न, दलित-प्रश्न, अश्लीलता के प्रश्न ज्यादा हावी दिखते हैं, जबकि प्रेमचंद की स्मृति-धरोहर होने के नाते भी, 'हंस' को आज के गांवों की दशा पर सबसे ज्यादा तल्ख और मुखर होना चाहिए। यह तटस्थता, गांवों के प्रति यह उदासीनता क्यों?
बात सही है। चूंकि मैं गांव का सिर्फ रहा भर हूं, लेकिन सचेत जीवन शहरी रहा है। सीधे संपर्क नहीं रहा। मेरे संपादक होने के नाते हंस के साथ एक बात यह भी हो सकती है। हालांकि ऐसी कोई बात नहीं कि अपने समय के गांव को रचनाकार के रूप में मैंने महसूस नहीं किया है। पैंतालीस सालों शहर में रह रहा हूं। हंस के साथ सबसे बड़ा कंट्रीब्यूशन भी शहरी मध्यवर्ग का है। अब सवाल उठता है कि हम गांव के बारे में लिखें या गांव के लोग लिखें। यदि गांव से कोई गांव के बारे में लिखे तो बहुत ही अच्छा, लेकिन ऐसा हो कहां रहा है? ऐसा संभव भी नहीं लगता है। प्रेमचंद ने होरी के बारे में लिखा। किसी होरी को पता ही नहीं कि उसके बारे में भी किसी ने कुछ लिखा है। ये तो शहरों में बैठकर हम लोग न उसकी करुणा और दुर्दशा की फिलॉस्पी गढ़ रहे हैं। आज गांवों से कुछ लोग लिख रहे हैं। वे कौन-से लोग हैं? वे, वह लोग हैं, जो गांव में फंसे हैं, किसी मजबूरी या अन्य कारणों से। या कहिए कि जिन्हें शहरों में टिकने की सुविधा नहीं मिल पाई, गांव लौट गए और वहीं रह गए हैं। मजबूरी में वही गांव में रह कर गांव के बारे में लिख रहे हैं। और ये वे लोग नहीं हैं, जो गांवों में रम गए हैं।
फिर भी, हमारे यहां हंस में आज भी सत्तर फीसदी कहानियां गांव पर होती हैं। मैं अपने को प्रेमचंद, टॉलस्टॉय और गोर्की की परंपरा में मानता हूं। तो मुझे तो रूसी समाज पर लिखना चाहिए। क्यों? या मेरे समय में प्रेमचंद का गांव तो नहीं? मेरे लिए अपने समय के मानवीय संकट ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, वह गांव के हों या शहर के। प्रेमचंद ने गांव पर लिखा। यहां प्रेमचंद के गांव से ज्यादा बड़ी और महत्वपूर्ण होती है 'प्रेमचंद की चिंता' गांव के बारे में। यशपाल ने गांव पर नहीं लिखा, लेकिन मैं उन्हें प्रेमचंद की परंपरा का मानता हूं, क्योंकि उनकी रचना में जो मानवीय संघर्ष, मानवीय स्थितियां परिलक्षित होती हैं, हमे सीधे उसी गांव के सरोकारों तक ले जाती हैं। तो हंस के साथ गांव की बात जोड़कर एक लेखक के विषय को लेकर हम कंफ्यूज कर रहे हैं। आज मेरा समाज वो नहीं है, जो प्रेमचंद का था। मैंने 'प्रेमचंद की विरासत' के नाम से एक किताब भी लिखी है। आज आवागमन दोनों तरफ से है। गांव शहर में बढ़ता जा रहा है, शहर गांव में घुसता जा रहा है।
-'हंस' के संपादक के रूप में आपको वेब मीडिया, ब्लॉगिंग, न्यूज पोर्टल का कैसा भविष्य दिखता है? क्या पूंजीवादी मीडिया के दायरे पर एक बड़ा हस्तक्षेप नहीं है?
नहीं। कोई हस्तक्षेप नहीं। इसका भविष्य तभी मजबूत होगा, जब ये एकजुट हो जाएंगे। तभी हस्तक्षेप संभव हो सकता है। अलग-अलग रहकर नहीं। पैरलल तभी बनेंगे, जब एकजुट होंगे। हजारों-लाखों ब्लॉग, पोर्टल देखना किसी एक के लिए संभव नहीं। न किसी के पास इतना समय है। लेकिन हां, पैरलल हस्तक्षेप बहुत जरूरी है, इसको कामयाब और एकजुट होना ही चाहिए। इस दिशा में कोशिश करनी चाहिए।
एनडीटीवी में भी काफी पक्षपात : राजेंद्र यादव
Tuesday, 04 August 2009 15:51 जयप्रकाश त्रिपाठी भड़ास4मीडिया - इंटरव्यू

भड़ास4मीडिया से विशेष बातचीत में प्रख्यात साहित्यकार और 'हंस' के संपादक राजेंद्र यादव बोले- ये मीडिया सिर्फ 'मीडिया' नहीं है : राजेंद्र यादव हिंदी वालों के दिल-ओ-दिमाग पर लगातार छाए रहते हैं। कभी खलनायक के रूप में तो कभी नायक के रूप में। साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के माध्यम से हिंदी के बौद्धिक लोगों को जी-भर खुराक देने वाले राजेंद्र यादव साहित्य के स्थापित और चर्चित नाम हैं। भड़ास4मीडिया के कंटेंट हेड जयप्रकाश त्रिपाठी ने मीडिया और साहित्य के कई मुद्दों पर राजेंद्र यादव से खुलकर बातचीत की। पेश है इस विशेष इंटरव्यू के कुछ अंश :
-पूंजीवादी मीडिया के खिलाफ आज के दौर में जनता का पक्ष किस तरह सामने आना चाहिए? जैसा कि चुनाव के दिनों में काफी हल्ला रहा, लाखों-करोड़ों रुपये लेकर विज्ञापन को खबरों के रूप में छापने वाला क्या यह 'दलाल' मीडिया है? क्या उसके खिलाफ व्यापक जनाधार वाली मोरचेबंदी जरूरी नहीं होती जा रही है?
-देखिए, एक चीज है, ये सही है कि इस समय मीडिया का वर्चस्व है, खास तौर से दृश्य-मीडिया का। टीवी चैनल्स बिल्कुल छाए हुए हैं। सैकड़ों चैनल हैं और सैकड़ों आ भी रहे हैं। चैनलों की भीड़ में लोगों को समझ में नहीं आएगा कि कौन-सा देखें, कौन-सा नहीं देखें। इस समय सही बात ये है, जैसाकि अखबारों में निकला, हमारे यहां ('हंस' में) भी छपा, टीवी पर दिखा कि जब पैसा लेकर खबर बनाएंगे, दिखाएंगे तो बात बिल्कुल उल्टी हो जाएगी। जिससे जितना पैसा लिया, उसको उतना कवरेज दिया। प्रिंट मीडिया में भी, दृश्य में भी। लोगों ने अपने विरोधियों की खबर दबाने के लिए पैसे दिए। एक तरह से वो चुनाव का दंगल हो गया। सवाल ये है कि ये जो अंधेरगर्दी चल रही है, ये जो धुंआधार हो रहा है, तो अब इसके खिलाफ होना क्या चाहिए? एक तो ये जानिए कि दृश्य मीडिया मुख्य रूप से मध्यम वर्ग का है। वही इसका दर्शक और श्रोता है। तो उनका मीडिया है। यदि कोई अनहोनी हो जाए, तो ये मध्यवर्गीय लोग कभी भी भीड़ बनाकर टीवी चैनलों के दफ्तरों पर नहीं जाएंगे। ये घरों में रहेंगे, गाली देते रहेंगे और सोते रहेंगे। लेकिन कहते हैं न कि बाजार मजबूर कर देता है। आप अभिशप्त हैं, चीजें खरीदने के लिए। और वो निर्लिप्त हैं बेंचने के लिए।
देखिए कि मीडिया सिर्फ खबरें नहीं बेच रहा है, ये मीडिया सिर्फ मीडिया नहीं है, ये विज्ञापनों के माध्यम से कंज्यूमर्स को हजारों चीजें बेच रहा है। जो हम चाहते नहीं, जिसकी हमे जरूरत नहीं, वह भी हमे खरीदने के लिए ललचाता रहता है। ऐसे में या तो आपके पास एक समानांतर या पैरलल किस्म का मीडिया हो, जो इसलिए संभव नहीं है कि ऐसे एक-एक मीडिया संस्थान स्थापित करने में सैकड़ो-सैकड़ो करोड़ की पूंजी लग रही है। वह संस्थान, चाहे प्रिंट का हो या दृश्य का। इतना कॉस्टली हो गया है कि जब तक आपके पास दो-तीन सौ करोड़ न हों, आप चैनल चलाने की बात ही नहीं सोच सकते हैं। अखबार तो भी सौ-पचास लाख में चला सकते हैं, लेकिन चैनल नहीं। इतनी पूंजी लगाने के बावजूद आप में क्षमता होनी चाहिए कि दो-तीन साल घाटा भी बर्दाश्त करें।
ऐसी स्थिति में दो ही विकल्प बचते हैं। क्योंकि पैरलल हम चला नहीं सकते। आज मैं जो चैनल देखता हूं, जो मुझे सबसे विश्वसनीय चैनल लगता है, एनडीटीवी है। वहां भी काफी पक्षपात दिखाई देता है। हो सकता है, वह विज्ञापन के रूप में प्रायोजित खबरों का पैसा न लेते हों। आपको शायद याद होगा। दो-तीन साल पहले हमने 'हंस' का एक विशेषांक खबरिया चैनलों पर प्रकाशित किया था। उसके बाद चैनल में काम करने वाले लेखकों की कहानियों पर एक किताब निकाली थी। उन कहानियों से जो सच सामने आया, पहली बार जान पड़ा कि चैनलों के भीतर अद्भुत कहानियां है। चैनलों के भीतर हालात भयानक हैं। कि कैसे एक घटना को बनाया जाता है, और उसको कवर करके उस पर हंगामा क्रिएट किया जाता है। जैसे चैनल्स के रिपोर्टर्स ने एक दूध वाले से कहा कि पहले हम तुम्हारे कपड़ों में आग लगा देंगे। इसके बाद फोटो खींचकर आग बुझा देंगे। आग लगा दी, बुझाया नहीं, उस पर फिल्म बनाने लगे और वह देखते ही देखते जिंदा जल गया। मर गया।
ऐसा पहले अमेरिकी मीडिया कर चुका है। पंद्रह-बीस साल पहले वहां का एक अखबार व्यवसायी था। बाद में उसका बेटा उसके साथ काम करने लगा। अखबार निकालने लगा। उसने नए धंधे का नया तोड़ निकाला। सत्य कथाओं का प्रकाशन। उसका बचपन का एक दोस्त था। उसने दोस्त से कांटेक्ट किया कि वह उसे सच्ची-ताजी अपराध कथाएं बताए, वह उन्हें ही छापेगा। सच्ची घटनाएं छपने लगीं। अखबार की मांग आसमान छूने लगी। फिर उससे कहा कि एक्सक्लूसिव खबरों के लिए तुम अपराध आयोजित करो। हम उनकी फोटो लेंगे, अब सचित्र छापा करेंगे। अब हुआ ये कि वे घटनाएं सबसे पहले उसके अखबार में छपने लगीं। धीरे-धीरे वह इतना पॉवरफुल हो गया कि उसकी तूती बोलने लगी। घटनाएं भी खूब होने लगीं। जो भी घटना होती, सबसे पहले उसके ही अखबार में छप जाती। उसी दौरान वहां किसी राष्ट्राध्यक्ष का प्रोग्राम बना। उसकी एक्सक्लूलिव खबर बनाने के लिए उन्होंने उसकी हत्या की साजिश रची। होता यह था कि उधर घटना होती, इधर पहले से खबर बना ली जाती। राष्ट्राध्यक्ष की हत्या की साजिश सफल नहीं हो सकी लेकिन मर्डर की पहले से तैयार खबर अखबार में छप गई। उसके बाद वह अखबार ऐसा ध्वस्त हुआ कि फिर कभी न उठ सका। जो अपने को सर्वशक्तिमान मान लेता है, किसी समय वह भी इसी तरह ध्वस्त होता है। यही हाल आज भारतीय मीडिया का होता जा रहा है। इनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता से सूचनाओं को लेकर जिस तरह की मनमानी बढ़ती जा रही है, यही उनके विनाश का कारण भी बनेगी। ये पूंजीवादी मीडिया बाहरी नहीं, अपने आंतरिक कारणों से कभी बेमौत मरेगा। क्योंकि यह इतना बलवान हो चुका है कि किसी बाहरी मार से नहीं मरेगा। ये अपने ही अंतरविरोधों, आपसी 'युद्ध-प्रतिद्वंद्विता' या अपने बोझ से मरेगा। जैसाकि मार्क्स ने भी कहा है, पूंजीवाद अपनी मौत मरेगा, तो इस वैभवशाली मीडिया पर भी वही बात लागू होती है। तो इस खबरफरोश मीडिया के खिलाफ जनता की ओर से बस यही उम्मीद की जा सकती है। जहां तक इस मीडिया के जनता के साथ खड़े होने की बात है, यह किसी आंदोलन को खड़ा कर सकता है, लेकिन उसके साथ खड़ा नहीं हो सकता। यही इसके बाजार और अस्तित्व का तकाजा है।

राजेंद्र यादव से बातचीत करते भड़ास4मीडिया के कंटेंट हेड जयप्रकाश त्रिपाठी
-उदय प्रकाश सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने लगे हैं। उनके खिलाफ लेखकों ने बहिष्कार का ऐलान किया। वह हर तरह की राजनीतिक विचारधारा से अपने को मुक्त घोषित कर रहे हैं? इस पर आपका क्या सोचना है?
जब उदय प्रकाश के खिलाफ लेखकों की सूची जारी की गई थी, मुझसे भी समर्थन मांगा गया था। मैं उस समय तक कुछ जानता नहीं था। मैंने उनसे पूछा था और कहा था कि जब तक कोई बात मैं पूरी तरह न जान लूं, उस पर कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं। मैं पहले पता करूंगा कि आखिर सही बात क्या है? जो लोग उस सूची में मेरा नाम भी शामिल करना चाहते थे, बाद में उनकी बातों की पुष्टि हो गई।
देखिए, उदय प्रकाश बहुत बेजोड़ साहित्यकार हैं। यदि इस समय हिंदी कथाकारों में कोई एक नाम लेना हो, तो वह हैं उदय प्रकाश। लेकिन जरूरी नहीं है कि व्यक्तिगत रूप से भी वह वैसे ही बेजोड़ हों। वह इस समय 'आत्म-प्रताड़ना' जैसी बीमारी के शिकार हैं। उन्हें लगता है कि उनके खिलाफ सब लोग षड्यंत्र करते हैं, उन्हें सब लोग सताते हैं, उन्हें पुरस्कार नहीं देते, उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार नहीं मिला, उन्हें कोई नौकरी नहीं दे रहा, आदि-आदि। बराबर, चौबीसो घंटे उनकी यही शिकायतें रहती हैं। ये जो चीजें हैं, हमेशा आत्म-दया, आत्म-करुणा, कुंठा कि सारी दुनिया उनके खिलाफ है, उसका कारण वो ये मानते हैं कि बाकी जो हिंदी वाले लोग हैं, बहुत टुच्चे हैं, अनपढ़ लोग हैं, बेवकूफ हैं और सिर्फ वे (उदय प्रकाश) ही एक महान लेखक हैं। सिर्फ उन्होंने ही अच्छी किताबें लिखी हैं, बाकी सब उल्लू के पट्ठे हैं, उनसे जलते और उनके रास्ते की बाधा हैं। जब वह इस तरह सोचेंगे, इस तरह की बातें करेंगे तो क्या कहा जाए!
गोरखपुर वाले प्रकरण पर एक बार मेरे पास भी उनका फोन आया। छूटते ही उन्होंने मुझसे सवाल किया कि ये सब क्या हो रहा है? मैंने कहा, हो क्या रहा है, जैसा कर रहे हो, वैसा हो रहा है। वे कहने लगे, मेरा वह पारिवारिक मामला था, मेरे भाई की स्मृति में वह कार्यक्रम हुआ था। उनकी बरसी का आयोजन था। मैं उसमें गया था। तो, मैंने उनसे पूछा कि जब वह निजी कार्यक्रम था तो सार्वजनिक तरीके से क्यों आयोजित किया गया। यदि सार्वजनिक तरीके से हुआ तो पर्सनल कैसे रहा? क्या आप जानते नहीं थे कि वह योगी आदित्यनाथ 'वहां का भयंकर हत्यारा, गुंडा, बीजेपी का बदमाश' भी वहां मंच पर बैठा था? और आपने उसके हाथ से पुरस्कार ले लिया, क्यों? क्या यह सब अनजाने में हो गया? इतने मासूम, इतने दयनीय मत बनो। मैंने उस दिन उदय प्रकाश को बहुत डांटा था। तुम्हारे भीतर एक ऐसी कुंठा है, जो लगता है कि हर आदमी तुम्हारे खिलाफ षड्यंत्र करता है। मेरा खयाल है कि तुम खुद अपना कोई रास्ता तलाश लो। मुझे लगता भी है कि वह कोई नया रास्ता तलाश रहे हैं।
वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं। सवाल उठता है कि उदय प्रकाश जैसा प्रबुद्ध लेखक क्या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मतलब नहीं जानता? वह उसका समर्थन कर रहा है तो उसका क्या मतलब है? या तो उसे अवसरवादी कहेंगे या कुछ और। मैं कहना नहीं चाहता, लेकिन गांव का एक बड़ा वैसा मुहावरा है कि 'सबसे सयाना कौवा, सबसे ज्यादा गू खाता है'। पक्षियों में सबसे सयाना। गंदी चीजों पर सबसे ज्यादा चोंच मारता फिरता है, हर जगह।
सुना है कि अब वह अपने समस्त राजनीतिक सरोकार खत्म कर लेने की बातें भी करने लगे हैं....कि किसी राजनीतिक विचारधारा के लिए प्रतिबद्ध नहीं, कि किसी भी तरह की राजनीतिक तानाशाही के खिलाफ हैं, आदि-आदि। तो राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक तानाशाही, दोनों अलग-अलग दो बाते हैं। एक बाहर से है, दूसरी खुद की। लेखक के साथ कोई राजनीतिक तानाशाही न हो, यह एक ठीक बात है, लेकिन लेखक कहे कि मेरी कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है, ये अलग बात हो गई। और ये दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। जब वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं तो क्या वह उनके राजनीतिक विचारों का संकेत नहीं? क्या वह नहीं जानते कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद राजनीतिक बात है, और किस तरह के लोगों की राजनीतिक विचारधारा की बात है? अगर मैं उदय प्रकाश के बारे में इन बातों को सही मानूं तो मैं उनसे एक बात कहना चाहूंगा कि 'कोई भी नया कपड़ा पहनने से पहले अपने सारे कपड़े उतार कर नंगा होना पड़ेगा'!
-विचारधारा को लेकर एक सवाल आप पर भी बनता है। आपने कहीं कहा है कि विचारधारा नृशंस बनाती है। कैसे?
देखिए, उस बातचीत के दौरान मुझे ऐसा लगा था। अभी भी लगता है। लड़ने के लिए, युद्ध के लिए, और उसके बाद उन विचारों के हिसाब से जो शासन प्रणाली बनती है, तो वह उस राज्य के माध्यम से अपने विचारों को लोगों पर लागू करने की अवांछित कोशिशें ज्यादा करती है। जिन विचारों की दृढ़ता के साथ आप कोई संघर्ष करते हैं, लड़ते हैं, युद्ध करते हैं, युद्ध जीत जाने के बाद जब आप शासन में आएंगे, तो उसी एक-पक्षीय वैचारिक नृशंसता के साथ अपनी शासन प्रणाली चलाना चाहेंगे। जैसे आज माओवादी, जिस साहस, एकता और हिम्मत से लड़ रहे हैं, शासन में आ जाने के बाद वह उसी मजबूती से अपने विचारों को लागू करना चाहेंगे। जहां-जहां इस्लामी शासन प्रणाली आई, वहां भी ऐसा हुआ। उनकी नजर में, उनके विचारों के हिसाब से जो काफिर थे, दमन का शिकार हुए। लेकिन हमारे यहां बात दूसरी है। जब संग्राम होता है तो उसके नायक दूसरे होते हैं, सत्ता में आ जाने के बाद दूसरे। जैसे महात्मा गांधी। जब स्वतंत्रता सेनानी गांधीवादी तरीके से संग्राम जीत कर राजसत्ता में आगे तो गांधी चले गए। हमने जो प्रजातंत्र की शासन प्रणाली अपनाई, वो शब्दशः वैसी नहीं थी, जैसा गांधी जी चाहते, कहते थे। गांधी जी व्यक्ति-केंद्रित थे। वह उस समय की पैदाइश थे, जब सारी चीजें व्यक्ति-केंद्रित होती थीं। अहिंसा तो सिर्फ कहने को उनका राजनीतिक अस्त्र था।
-गांव के प्रश्न 'हंस' से नदारद क्यों रहते हैं? वहां के प्लेटफॉर्म से स्त्री-प्रश्न, दलित-प्रश्न, अश्लीलता के प्रश्न ज्यादा हावी दिखते हैं, जबकि प्रेमचंद की स्मृति-धरोहर होने के नाते भी, 'हंस' को आज के गांवों की दशा पर सबसे ज्यादा तल्ख और मुखर होना चाहिए। यह तटस्थता, गांवों के प्रति यह उदासीनता क्यों?
बात सही है। चूंकि मैं गांव का सिर्फ रहा भर हूं, लेकिन सचेत जीवन शहरी रहा है। सीधे संपर्क नहीं रहा। मेरे संपादक होने के नाते हंस के साथ एक बात यह भी हो सकती है। हालांकि ऐसी कोई बात नहीं कि अपने समय के गांव को रचनाकार के रूप में मैंने महसूस नहीं किया है। पैंतालीस सालों शहर में रह रहा हूं। हंस के साथ सबसे बड़ा कंट्रीब्यूशन भी शहरी मध्यवर्ग का है। अब सवाल उठता है कि हम गांव के बारे में लिखें या गांव के लोग लिखें। यदि गांव से कोई गांव के बारे में लिखे तो बहुत ही अच्छा, लेकिन ऐसा हो कहां रहा है? ऐसा संभव भी नहीं लगता है। प्रेमचंद ने होरी के बारे में लिखा। किसी होरी को पता ही नहीं कि उसके बारे में भी किसी ने कुछ लिखा है। ये तो शहरों में बैठकर हम लोग न उसकी करुणा और दुर्दशा की फिलॉस्पी गढ़ रहे हैं। आज गांवों से कुछ लोग लिख रहे हैं। वे कौन-से लोग हैं? वे, वह लोग हैं, जो गांव में फंसे हैं, किसी मजबूरी या अन्य कारणों से। या कहिए कि जिन्हें शहरों में टिकने की सुविधा नहीं मिल पाई, गांव लौट गए और वहीं रह गए हैं। मजबूरी में वही गांव में रह कर गांव के बारे में लिख रहे हैं। और ये वे लोग नहीं हैं, जो गांवों में रम गए हैं।
फिर भी, हमारे यहां हंस में आज भी सत्तर फीसदी कहानियां गांव पर होती हैं। मैं अपने को प्रेमचंद, टॉलस्टॉय और गोर्की की परंपरा में मानता हूं। तो मुझे तो रूसी समाज पर लिखना चाहिए। क्यों? या मेरे समय में प्रेमचंद का गांव तो नहीं? मेरे लिए अपने समय के मानवीय संकट ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, वह गांव के हों या शहर के। प्रेमचंद ने गांव पर लिखा। यहां प्रेमचंद के गांव से ज्यादा बड़ी और महत्वपूर्ण होती है 'प्रेमचंद की चिंता' गांव के बारे में। यशपाल ने गांव पर नहीं लिखा, लेकिन मैं उन्हें प्रेमचंद की परंपरा का मानता हूं, क्योंकि उनकी रचना में जो मानवीय संघर्ष, मानवीय स्थितियां परिलक्षित होती हैं, हमे सीधे उसी गांव के सरोकारों तक ले जाती हैं। तो हंस के साथ गांव की बात जोड़कर एक लेखक के विषय को लेकर हम कंफ्यूज कर रहे हैं। आज मेरा समाज वो नहीं है, जो प्रेमचंद का था। मैंने 'प्रेमचंद की विरासत' के नाम से एक किताब भी लिखी है। आज आवागमन दोनों तरफ से है। गांव शहर में बढ़ता जा रहा है, शहर गांव में घुसता जा रहा है।
-'हंस' के संपादक के रूप में आपको वेब मीडिया, ब्लॉगिंग, न्यूज पोर्टल का कैसा भविष्य दिखता है? क्या पूंजीवादी मीडिया के दायरे पर एक बड़ा हस्तक्षेप नहीं है?
नहीं। कोई हस्तक्षेप नहीं। इसका भविष्य तभी मजबूत होगा, जब ये एकजुट हो जाएंगे। तभी हस्तक्षेप संभव हो सकता है। अलग-अलग रहकर नहीं। पैरलल तभी बनेंगे, जब एकजुट होंगे। हजारों-लाखों ब्लॉग, पोर्टल देखना किसी एक के लिए संभव नहीं। न किसी के पास इतना समय है। लेकिन हां, पैरलल हस्तक्षेप बहुत जरूरी है, इसको कामयाब और एकजुट होना ही चाहिए। इस दिशा में कोशिश करनी चाहिए।
एनडीटीवी में भी काफी पक्षपात : राजेंद्र यादव

भड़ास4मीडिया से विशेष बातचीत में प्रख्यात साहित्यकार और 'हंस' के संपादक राजेंद्र यादव बोले- ये मीडिया सिर्फ 'मीडिया' नहीं है : राजेंद्र यादव हिंदी वालों के दिल-ओ-दिमाग पर लगातार छाए रहते हैं। कभी खलनायक के रूप में तो कभी नायक के रूप में। साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के माध्यम से हिंदी के बौद्धिक लोगों को जी-भर खुराक देने वाले राजेंद्र यादव साहित्य के स्थापित और चर्चित नाम हैं। भड़ास4मीडिया के कंटेंट हेड जयप्रकाश त्रिपाठी ने मीडिया और साहित्य के कई मुद्दों पर राजेंद्र यादव से खुलकर बातचीत की। पेश है इस विशेष इंटरव्यू के कुछ अंश :
-पूंजीवादी मीडिया के खिलाफ आज के दौर में जनता का पक्ष किस तरह सामने आना चाहिए? जैसा कि चुनाव के दिनों में काफी हल्ला रहा, लाखों-करोड़ों रुपये लेकर विज्ञापन को खबरों के रूप में छापने वाला क्या यह 'दलाल' मीडिया है? क्या उसके खिलाफ व्यापक जनाधार वाली मोरचेबंदी जरूरी नहीं होती जा रही है?
-देखिए, एक चीज है, ये सही है कि इस समय मीडिया का वर्चस्व है, खास तौर से दृश्य-मीडिया का। टीवी चैनल्स बिल्कुल छाए हुए हैं। सैकड़ों चैनल हैं और सैकड़ों आ भी रहे हैं। चैनलों की भीड़ में लोगों को समझ में नहीं आएगा कि कौन-सा देखें, कौन-सा नहीं देखें। इस समय सही बात ये है, जैसाकि अखबारों में निकला, हमारे यहां ('हंस' में) भी छपा, टीवी पर दिखा कि जब पैसा लेकर खबर बनाएंगे, दिखाएंगे तो बात बिल्कुल उल्टी हो जाएगी। जिससे जितना पैसा लिया, उसको उतना कवरेज दिया। प्रिंट मीडिया में भी, दृश्य में भी। लोगों ने अपने विरोधियों की खबर दबाने के लिए पैसे दिए। एक तरह से वो चुनाव का दंगल हो गया। सवाल ये है कि ये जो अंधेरगर्दी चल रही है, ये जो धुंआधार हो रहा है, तो अब इसके खिलाफ होना क्या चाहिए? एक तो ये जानिए कि दृश्य मीडिया मुख्य रूप से मध्यम वर्ग का है। वही इसका दर्शक और श्रोता है। तो उनका मीडिया है। यदि कोई अनहोनी हो जाए, तो ये मध्यवर्गीय लोग कभी भी भीड़ बनाकर टीवी चैनलों के दफ्तरों पर नहीं जाएंगे। ये घरों में रहेंगे, गाली देते रहेंगे और सोते रहेंगे। लेकिन कहते हैं न कि बाजार मजबूर कर देता है। आप अभिशप्त हैं, चीजें खरीदने के लिए। और वो निर्लिप्त हैं बेंचने के लिए।
देखिए कि मीडिया सिर्फ खबरें नहीं बेच रहा है, ये मीडिया सिर्फ मीडिया नहीं है, ये विज्ञापनों के माध्यम से कंज्यूमर्स को हजारों चीजें बेच रहा है। जो हम चाहते नहीं, जिसकी हमे जरूरत नहीं, वह भी हमे खरीदने के लिए ललचाता रहता है। ऐसे में या तो आपके पास एक समानांतर या पैरलल किस्म का मीडिया हो, जो इसलिए संभव नहीं है कि ऐसे एक-एक मीडिया संस्थान स्थापित करने में सैकड़ो-सैकड़ो करोड़ की पूंजी लग रही है। वह संस्थान, चाहे प्रिंट का हो या दृश्य का। इतना कॉस्टली हो गया है कि जब तक आपके पास दो-तीन सौ करोड़ न हों, आप चैनल चलाने की बात ही नहीं सोच सकते हैं। अखबार तो भी सौ-पचास लाख में चला सकते हैं, लेकिन चैनल नहीं। इतनी पूंजी लगाने के बावजूद आप में क्षमता होनी चाहिए कि दो-तीन साल घाटा भी बर्दाश्त करें।
ऐसी स्थिति में दो ही विकल्प बचते हैं। क्योंकि पैरलल हम चला नहीं सकते। आज मैं जो चैनल देखता हूं, जो मुझे सबसे विश्वसनीय चैनल लगता है, एनडीटीवी है। वहां भी काफी पक्षपात दिखाई देता है। हो सकता है, वह विज्ञापन के रूप में प्रायोजित खबरों का पैसा न लेते हों। आपको शायद याद होगा। दो-तीन साल पहले हमने 'हंस' का एक विशेषांक खबरिया चैनलों पर प्रकाशित किया था। उसके बाद चैनल में काम करने वाले लेखकों की कहानियों पर एक किताब निकाली थी। उन कहानियों से जो सच सामने आया, पहली बार जान पड़ा कि चैनलों के भीतर अद्भुत कहानियां है। चैनलों के भीतर हालात भयानक हैं। कि कैसे एक घटना को बनाया जाता है, और उसको कवर करके उस पर हंगामा क्रिएट किया जाता है। जैसे चैनल्स के रिपोर्टर्स ने एक दूध वाले से कहा कि पहले हम तुम्हारे कपड़ों में आग लगा देंगे। इसके बाद फोटो खींचकर आग बुझा देंगे। आग लगा दी, बुझाया नहीं, उस पर फिल्म बनाने लगे और वह देखते ही देखते जिंदा जल गया। मर गया।
ऐसा पहले अमेरिकी मीडिया कर चुका है। पंद्रह-बीस साल पहले वहां का एक अखबार व्यवसायी था। बाद में उसका बेटा उसके साथ काम करने लगा। अखबार निकालने लगा। उसने नए धंधे का नया तोड़ निकाला। सत्य कथाओं का प्रकाशन। उसका बचपन का एक दोस्त था। उसने दोस्त से कांटेक्ट किया कि वह उसे सच्ची-ताजी अपराध कथाएं बताए, वह उन्हें ही छापेगा। सच्ची घटनाएं छपने लगीं। अखबार की मांग आसमान छूने लगी। फिर उससे कहा कि एक्सक्लूसिव खबरों के लिए तुम अपराध आयोजित करो। हम उनकी फोटो लेंगे, अब सचित्र छापा करेंगे। अब हुआ ये कि वे घटनाएं सबसे पहले उसके अखबार में छपने लगीं। धीरे-धीरे वह इतना पॉवरफुल हो गया कि उसकी तूती बोलने लगी। घटनाएं भी खूब होने लगीं। जो भी घटना होती, सबसे पहले उसके ही अखबार में छप जाती। उसी दौरान वहां किसी राष्ट्राध्यक्ष का प्रोग्राम बना। उसकी एक्सक्लूलिव खबर बनाने के लिए उन्होंने उसकी हत्या की साजिश रची। होता यह था कि उधर घटना होती, इधर पहले से खबर बना ली जाती। राष्ट्राध्यक्ष की हत्या की साजिश सफल नहीं हो सकी लेकिन मर्डर की पहले से तैयार खबर अखबार में छप गई। उसके बाद वह अखबार ऐसा ध्वस्त हुआ कि फिर कभी न उठ सका। जो अपने को सर्वशक्तिमान मान लेता है, किसी समय वह भी इसी तरह ध्वस्त होता है। यही हाल आज भारतीय मीडिया का होता जा रहा है। इनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता से सूचनाओं को लेकर जिस तरह की मनमानी बढ़ती जा रही है, यही उनके विनाश का कारण भी बनेगी। ये पूंजीवादी मीडिया बाहरी नहीं, अपने आंतरिक कारणों से कभी बेमौत मरेगा। क्योंकि यह इतना बलवान हो चुका है कि किसी बाहरी मार से नहीं मरेगा। ये अपने ही अंतरविरोधों, आपसी 'युद्ध-प्रतिद्वंद्विता' या अपने बोझ से मरेगा। जैसाकि मार्क्स ने भी कहा है, पूंजीवाद अपनी मौत मरेगा, तो इस वैभवशाली मीडिया पर भी वही बात लागू होती है। तो इस खबरफरोश मीडिया के खिलाफ जनता की ओर से बस यही उम्मीद की जा सकती है। जहां तक इस मीडिया के जनता के साथ खड़े होने की बात है, यह किसी आंदोलन को खड़ा कर सकता है, लेकिन उसके साथ खड़ा नहीं हो सकता। यही इसके बाजार और अस्तित्व का तकाजा है।

राजेंद्र यादव से बातचीत करते भड़ास4मीडिया के कंटेंट हेड जयप्रकाश त्रिपाठी
-उदय प्रकाश सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने लगे हैं। उनके खिलाफ लेखकों ने बहिष्कार का ऐलान किया। वह हर तरह की राजनीतिक विचारधारा से अपने को मुक्त घोषित कर रहे हैं? इस पर आपका क्या सोचना है?
जब उदय प्रकाश के खिलाफ लेखकों की सूची जारी की गई थी, मुझसे भी समर्थन मांगा गया था। मैं उस समय तक कुछ जानता नहीं था। मैंने उनसे पूछा था और कहा था कि जब तक कोई बात मैं पूरी तरह न जान लूं, उस पर कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं। मैं पहले पता करूंगा कि आखिर सही बात क्या है? जो लोग उस सूची में मेरा नाम भी शामिल करना चाहते थे, बाद में उनकी बातों की पुष्टि हो गई।
देखिए, उदय प्रकाश बहुत बेजोड़ साहित्यकार हैं। यदि इस समय हिंदी कथाकारों में कोई एक नाम लेना हो, तो वह हैं उदय प्रकाश। लेकिन जरूरी नहीं है कि व्यक्तिगत रूप से भी वह वैसे ही बेजोड़ हों। वह इस समय 'आत्म-प्रताड़ना' जैसी बीमारी के शिकार हैं। उन्हें लगता है कि उनके खिलाफ सब लोग षड्यंत्र करते हैं, उन्हें सब लोग सताते हैं, उन्हें पुरस्कार नहीं देते, उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार नहीं मिला, उन्हें कोई नौकरी नहीं दे रहा, आदि-आदि। बराबर, चौबीसो घंटे उनकी यही शिकायतें रहती हैं। ये जो चीजें हैं, हमेशा आत्म-दया, आत्म-करुणा, कुंठा कि सारी दुनिया उनके खिलाफ है, उसका कारण वो ये मानते हैं कि बाकी जो हिंदी वाले लोग हैं, बहुत टुच्चे हैं, अनपढ़ लोग हैं, बेवकूफ हैं और सिर्फ वे (उदय प्रकाश) ही एक महान लेखक हैं। सिर्फ उन्होंने ही अच्छी किताबें लिखी हैं, बाकी सब उल्लू के पट्ठे हैं, उनसे जलते और उनके रास्ते की बाधा हैं। जब वह इस तरह सोचेंगे, इस तरह की बातें करेंगे तो क्या कहा जाए!
गोरखपुर वाले प्रकरण पर एक बार मेरे पास भी उनका फोन आया। छूटते ही उन्होंने मुझसे सवाल किया कि ये सब क्या हो रहा है? मैंने कहा, हो क्या रहा है, जैसा कर रहे हो, वैसा हो रहा है। वे कहने लगे, मेरा वह पारिवारिक मामला था, मेरे भाई की स्मृति में वह कार्यक्रम हुआ था। उनकी बरसी का आयोजन था। मैं उसमें गया था। तो, मैंने उनसे पूछा कि जब वह निजी कार्यक्रम था तो सार्वजनिक तरीके से क्यों आयोजित किया गया। यदि सार्वजनिक तरीके से हुआ तो पर्सनल कैसे रहा? क्या आप जानते नहीं थे कि वह योगी आदित्यनाथ 'वहां का भयंकर हत्यारा, गुंडा, बीजेपी का बदमाश' भी वहां मंच पर बैठा था? और आपने उसके हाथ से पुरस्कार ले लिया, क्यों? क्या यह सब अनजाने में हो गया? इतने मासूम, इतने दयनीय मत बनो। मैंने उस दिन उदय प्रकाश को बहुत डांटा था। तुम्हारे भीतर एक ऐसी कुंठा है, जो लगता है कि हर आदमी तुम्हारे खिलाफ षड्यंत्र करता है। मेरा खयाल है कि तुम खुद अपना कोई रास्ता तलाश लो। मुझे लगता भी है कि वह कोई नया रास्ता तलाश रहे हैं।
वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं। सवाल उठता है कि उदय प्रकाश जैसा प्रबुद्ध लेखक क्या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मतलब नहीं जानता? वह उसका समर्थन कर रहा है तो उसका क्या मतलब है? या तो उसे अवसरवादी कहेंगे या कुछ और। मैं कहना नहीं चाहता, लेकिन गांव का एक बड़ा वैसा मुहावरा है कि 'सबसे सयाना कौवा, सबसे ज्यादा गू खाता है'। पक्षियों में सबसे सयाना। गंदी चीजों पर सबसे ज्यादा चोंच मारता फिरता है, हर जगह।
सुना है कि अब वह अपने समस्त राजनीतिक सरोकार खत्म कर लेने की बातें भी करने लगे हैं....कि किसी राजनीतिक विचारधारा के लिए प्रतिबद्ध नहीं, कि किसी भी तरह की राजनीतिक तानाशाही के खिलाफ हैं, आदि-आदि। तो राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक तानाशाही, दोनों अलग-अलग दो बाते हैं। एक बाहर से है, दूसरी खुद की। लेखक के साथ कोई राजनीतिक तानाशाही न हो, यह एक ठीक बात है, लेकिन लेखक कहे कि मेरी कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है, ये अलग बात हो गई। और ये दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। जब वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं तो क्या वह उनके राजनीतिक विचारों का संकेत नहीं? क्या वह नहीं जानते कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद राजनीतिक बात है, और किस तरह के लोगों की राजनीतिक विचारधारा की बात है? अगर मैं उदय प्रकाश के बारे में इन बातों को सही मानूं तो मैं उनसे एक बात कहना चाहूंगा कि 'कोई भी नया कपड़ा पहनने से पहले अपने सारे कपड़े उतार कर नंगा होना पड़ेगा'!
-विचारधारा को लेकर एक सवाल आप पर भी बनता है। आपने कहीं कहा है कि विचारधारा नृशंस बनाती है। कैसे?
देखिए, उस बातचीत के दौरान मुझे ऐसा लगा था। अभी भी लगता है। लड़ने के लिए, युद्ध के लिए, और उसके बाद उन विचारों के हिसाब से जो शासन प्रणाली बनती है, तो वह उस राज्य के माध्यम से अपने विचारों को लोगों पर लागू करने की अवांछित कोशिशें ज्यादा करती है। जिन विचारों की दृढ़ता के साथ आप कोई संघर्ष करते हैं, लड़ते हैं, युद्ध करते हैं, युद्ध जीत जाने के बाद जब आप शासन में आएंगे, तो उसी एक-पक्षीय वैचारिक नृशंसता के साथ अपनी शासन प्रणाली चलाना चाहेंगे। जैसे आज माओवादी, जिस साहस, एकता और हिम्मत से लड़ रहे हैं, शासन में आ जाने के बाद वह उसी मजबूती से अपने विचारों को लागू करना चाहेंगे। जहां-जहां इस्लामी शासन प्रणाली आई, वहां भी ऐसा हुआ। उनकी नजर में, उनके विचारों के हिसाब से जो काफिर थे, दमन का शिकार हुए। लेकिन हमारे यहां बात दूसरी है। जब संग्राम होता है तो उसके नायक दूसरे होते हैं, सत्ता में आ जाने के बाद दूसरे। जैसे महात्मा गांधी। जब स्वतंत्रता सेनानी गांधीवादी तरीके से संग्राम जीत कर राजसत्ता में आगे तो गांधी चले गए। हमने जो प्रजातंत्र की शासन प्रणाली अपनाई, वो शब्दशः वैसी नहीं थी, जैसा गांधी जी चाहते, कहते थे। गांधी जी व्यक्ति-केंद्रित थे। वह उस समय की पैदाइश थे, जब सारी चीजें व्यक्ति-केंद्रित होती थीं। अहिंसा तो सिर्फ कहने को उनका राजनीतिक अस्त्र था।
-गांव के प्रश्न 'हंस' से नदारद क्यों रहते हैं? वहां के प्लेटफॉर्म से स्त्री-प्रश्न, दलित-प्रश्न, अश्लीलता के प्रश्न ज्यादा हावी दिखते हैं, जबकि प्रेमचंद की स्मृति-धरोहर होने के नाते भी, 'हंस' को आज के गांवों की दशा पर सबसे ज्यादा तल्ख और मुखर होना चाहिए। यह तटस्थता, गांवों के प्रति यह उदासीनता क्यों?
बात सही है। चूंकि मैं गांव का सिर्फ रहा भर हूं, लेकिन सचेत जीवन शहरी रहा है। सीधे संपर्क नहीं रहा। मेरे संपादक होने के नाते हंस के साथ एक बात यह भी हो सकती है। हालांकि ऐसी कोई बात नहीं कि अपने समय के गांव को रचनाकार के रूप में मैंने महसूस नहीं किया है। पैंतालीस सालों शहर में रह रहा हूं। हंस के साथ सबसे बड़ा कंट्रीब्यूशन भी शहरी मध्यवर्ग का है। अब सवाल उठता है कि हम गांव के बारे में लिखें या गांव के लोग लिखें। यदि गांव से कोई गांव के बारे में लिखे तो बहुत ही अच्छा, लेकिन ऐसा हो कहां रहा है? ऐसा संभव भी नहीं लगता है। प्रेमचंद ने होरी के बारे में लिखा। किसी होरी को पता ही नहीं कि उसके बारे में भी किसी ने कुछ लिखा है। ये तो शहरों में बैठकर हम लोग न उसकी करुणा और दुर्दशा की फिलॉस्पी गढ़ रहे हैं। आज गांवों से कुछ लोग लिख रहे हैं। वे कौन-से लोग हैं? वे, वह लोग हैं, जो गांव में फंसे हैं, किसी मजबूरी या अन्य कारणों से। या कहिए कि जिन्हें शहरों में टिकने की सुविधा नहीं मिल पाई, गांव लौट गए और वहीं रह गए हैं। मजबूरी में वही गांव में रह कर गांव के बारे में लिख रहे हैं। और ये वे लोग नहीं हैं, जो गांवों में रम गए हैं।
फिर भी, हमारे यहां हंस में आज भी सत्तर फीसदी कहानियां गांव पर होती हैं। मैं अपने को प्रेमचंद, टॉलस्टॉय और गोर्की की परंपरा में मानता हूं। तो मुझे तो रूसी समाज पर लिखना चाहिए। क्यों? या मेरे समय में प्रेमचंद का गांव तो नहीं? मेरे लिए अपने समय के मानवीय संकट ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, वह गांव के हों या शहर के। प्रेमचंद ने गांव पर लिखा। यहां प्रेमचंद के गांव से ज्यादा बड़ी और महत्वपूर्ण होती है 'प्रेमचंद की चिंता' गांव के बारे में। यशपाल ने गांव पर नहीं लिखा, लेकिन मैं उन्हें प्रेमचंद की परंपरा का मानता हूं, क्योंकि उनकी रचना में जो मानवीय संघर्ष, मानवीय स्थितियां परिलक्षित होती हैं, हमे सीधे उसी गांव के सरोकारों तक ले जाती हैं। तो हंस के साथ गांव की बात जोड़कर एक लेखक के विषय को लेकर हम कंफ्यूज कर रहे हैं। आज मेरा समाज वो नहीं है, जो प्रेमचंद का था। मैंने 'प्रेमचंद की विरासत' के नाम से एक किताब भी लिखी है। आज आवागमन दोनों तरफ से है। गांव शहर में बढ़ता जा रहा है, शहर गांव में घुसता जा रहा है।
-'हंस' के संपादक के रूप में आपको वेब मीडिया, ब्लॉगिंग, न्यूज पोर्टल का कैसा भविष्य दिखता है? क्या पूंजीवादी मीडिया के दायरे पर एक बड़ा हस्तक्षेप नहीं है?
नहीं। कोई हस्तक्षेप नहीं। इसका भविष्य तभी मजबूत होगा, जब ये एकजुट हो जाएंगे। तभी हस्तक्षेप संभव हो सकता है। अलग-अलग रहकर नहीं। पैरलल तभी बनेंगे, जब एकजुट होंगे। हजारों-लाखों ब्लॉग, पोर्टल देखना किसी एक के लिए संभव नहीं। न किसी के पास इतना समय है। लेकिन हां, पैरलल हस्तक्षेप बहुत जरूरी है, इसको कामयाब और एकजुट होना ही चाहिए। इस दिशा में कोशिश करनी चाहिए।

यह खेल मुझे बूढ़ा नहीं होने देगा

-प्रभाष जोशी-
मैं पत्रकारिता में इसलिए नहीं आया कि खेल के जुनून में था और खेल पर इसलिए नहीं लिखता कि पत्रकारिता में हूं। यह दुर्घटना है कि मैं पुराना टेस्ट खिलाड़ी होने की बजाय रिटायर्ड संपादक हूं। पत्रकारिता में नहीं भी होता तो भी खेलों में मेरी रुचि इसी तरह आग-सी जलती रहती। जब मैं संपादक हो गया और दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में एक टेस्ट हुआ, उसके पहले दिन की शुरुआत देखने के लिए मैं अपने दफ्तर से पास के ही कोटला ग्राउंड तक उत्तेजना में लगभग भागता हुआ गया। कार से जा सकता था, सीधे अपनी जगह पर जाकर बैठ सकता था लेकिन मैं दस बरस के उस उत्तेजित लड़के की तरह कूदता-फांदता गया, ठीक वैसे ही, जैसे लगभग चाली-पैंतालीस साल पहले अपने घर से यशवंत क्लब (इंदौर) गया था।
शाम को लौटकर आया और अपने कमरे में कुरसी पर बैठा तो मुझे अचानक लगा कि अगर क्रिकेट का यह जुनून नहीं होता तो पचास पार मुझ जैसे संभ्रांत प्रतिष्ठित संपादक के दिल में दस बरस के उस बच्चे का दिल धड़कता न होता। अचानक मेरा मन क्रिकेट के प्रति कृतज्ञता से भर गया। यह खेल मुझे बूढ़ा नहीं होने देगा। किसी ने कहा है कि खेल चरित्र बनाने से ज्यादा चरित्र प्रकट करता है। मैं ईमानदारी से कह सकता हूं कि मुझे सदा जीवंत रहने वाला मनुष्य खेल ने ही बनाया और वही मेरे चरित्र के सत्व को प्रकट करता है। .....सब कुछ खेल लेने और लीजेंड हो जाने के बाद बोरिस बेकर अपनी पत्नी को विंबलडन के सेंटर कोर्ट पर ले गए और वहां की घास दिखाकर कहा, 'यह वह जगह है, जहां मैं जनमा हूं।' बोरिस बेकर को आप-हम सब जानते हैं- जर्मनी के एक छोटे से गांव में जनमे हैं, अगर वह विंबलडन के सेंटर कोर्ट को अपना जन्म-स्थान बताते हैं तो वे वहां द्विज हुए थे- कुछ वैसे ही जैसे पोरबंदर में जनमे मोहनदास करमचंद गांधी पीटर्स मेरिसबर्ग के रेलवे प्लेटफार्म पर द्रिज हुए थे। जब आप अपने को उत्पन्न करके अपना साक्षात्कार करते हैं, तब आपका असली जन्म होता है। पॉवर और पैसे के खेल में जनमे और पनपे बोरिस बेकर को यह आत्म-साक्षात्कार विंबलडन में हुआ। कोई आश्चर्य नहीं कि जब एक अद्भुत फाइनल में वे पीटर सैंप्रस से हारे तो मैच के बाद उन्होंने पीटर के कान में कहा, 'मैं टेनिस से रिटायर हो रहा हूं।'
इस तरह खेल सिर्फ एक शारीरिक गतिविधि नहीं है। जैसे योग में शरीर की उच्चतम उपलब्धि पर आप आत्म-साक्षात्कार के सबसे पास होते हैं, वैसे ही खेल के चरम पर पहुंच कर खिलाड़ी समझता है कि वह यश, पैसे और निजी सुरक्षा के लिए नहीं, किसी ऐसे गौरव के लिए खेल रहा था, जो धन या यश से कभी प्राप्त नहीं होता। मुझे खेल जो आनंद देता है, वह और किसी गतिविधि में नहीं मिलता। जिस इंदौर शहर में मैं पला-पनपा, वह होल्करों का शहर था, लेकिन इसके राजा यशवंतराव होल्कर नहीं, कोट्टरी कनकइया नायडू थे। वहां के लड़कों को जो प्रेरणा और इंदौर के होने का गर्व नायडू से मिलता था, वह और किसी से नहीं। मुझे बार-बार एडिलेड की वह सुबह याद आती है, जब क्रिकेट प्रशंसकों के निरुत्साहित किए जाने के बावजूद हम डॉन ब्रैडमन के घर गए। ब्रैडमन को मैंने कहा, 'यदि आप तत्काल दरवाजा नहीं खोलते तो भी मैं उसके बाहर खड़ा रहता। बचपन के कितने दिन सीके नायडू की एक झलक देखने के लिए मैंने उनके बंगले के बाहर गुजारे। मैं जिस देश से आया हूं, वहां दर्शन करने वाले पट खुलने का इंतजार करते रहते हैं। जब पट खुलते हैं, तब दर्शन करके, जय बोलकर खुशी-खुशी अपने घर जाते हैं। मैं आपके दर्शन के लिए यह करता।
डॉन ब्रैडमन को यह बात इस कदर छू गई कि वह सिनीसिज्म या सनकीपन, जिसके खिलाफ हमें लोगों ने आगाह किया था, कहीं दिखा नहीं। उन्होंने ललक कर मुझसे सचिन, गावस्कर और विजय मर्चेंट के बारे में पूछा। खुद दस्तखत करके दिए। बाहर निकले तो कहा, 'कोई फोटो-वोटो नहीं खींचोगे?' मेरे साथ अशोक कुमुट था। उसने फोटो खींचे और फिर अशोक कुमुट के मैंने। सी.के. के गांव के होने का ऐसा पुण्य प्रताप है। मेरे मन में यह टीस हमेशा रहेगी कि डॉन ब्रैडमन इतने बुलाए और मनाए जाने के बावजूद मुंबई के तट पर जहाज से उतरकर सीसीआई नहीं आए। उन्हें डर था कि मुंबई में फैली बड़ी माता की बीमारी (चेचक) उन्हें लग न जाए। यह शिकायत आज भी है, क्योंकि डॉन ब्रैडमन को मानने वाले जैसे और जितने दीवाने भारत में हैं, ऑस्ट्रेलिया या इंग्लैंड में नहीं होंगे। मुझे गर्व है कि यह दीवानगी थोड़ी-बहुत मेरे अंदर भी है। इस दीवानगी और खेल के इस आनंद और गौरव को व्यक्त करने के लिए मैं क्रिकेट, टेनिस और दूसरे खेलों पर लिखता हूं। यह अपने को बूढ़ा न होने देने और जवान बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका है। एक पैसे की दवा नहीं और रंग भी चोखा है। यह मेरे जीवन के प्रोफेशनल दुखों में सबसे बड़ा दुख है कि मेरी भाषा और मेरे क्षेत्र के लोग अपनी दीवानगी व्यक्त करने के लिए अखबारों और टीवी चैनलों पर वह जगह नहीं पाते, जो मुझ जैसे खेल का आदमी न होते हुए भी अपनी इतर पत्रकारीय हैसियत के कारण सहज पा गया। जब मैं पहली बार ऑस्ट्रेलिया में विश्व कप कवर करने गया तो जो सुख-सुविधाएं मुझे प्राप्त थीं, वे खेल के किसी भी तीसमार खां को प्राप्त नहीं थीं और उसमें सिर्फ हिंदी के पत्रकार नहीं, भारत के सभी खेल पत्रकारों की यही दुर्गति थी।
ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से लौटकर आया तो मुझे जगह-जगह लोगों ने कहा कि जो लोग अंग्रेजी में ही क्रिकेट की रपट पढ़ते थे, वे भी पहले हिंदी में लिखी मेरी रपट पढ़ते थे। मुझे इस पर फूलकर कुप्प हो जाना चाहिए था, मैं नहीं हुआ। क्योंकि मै जानता हूं कि अपनी भाषा में जितना असरकारक मैं और मेरे जैसा कोई भी हिंदी वाला लिख सकता है, सीखी हुई अंग्रेजी में नहीं लिख सकता। यह आपका- मेरा दुर्भाग्य है कि हमें उस दरबार में नीचे बैठाया जाता है, जहां का सिंहासन 'अपना' है। मेरी अंतिम इच्छाओं में से एक यह होगी कि मेरी भाषा का कोई पत्रकार एक दिन फिर उस सिंहासन को अपना बनाए और उस पर बैठकर लिखे। हुक्म की तरह नहीं, आनंद की, गौरव की, अपने को बर्फ की तरह गला देने की इच्छा से लिखे।

Tuesday, July 21, 2009

ज़िन्दगी जिगज़ेग क्यों है ?

मेरे ज़ेहन की हर दीवार पर
इक इबारत-सी है चस्पां
'ज़िन्दगी ज़िगज़ेग क्यों है...?
'सपाट क्यों नहीं है ...?
मेरे चीखते सवालों का गूँगे जवाबों ने
कभी जवाब नहीं दिया
बस ,'ज़िन्दगी ज़िगज़ेग ...
ज़िगज़ेग ही रहेगी इक टका-सा जवाब दे दिया
लेकिन मैं मुतमईन नहीं हूँ
गर,तुम हो तो...
किसी दिन ख़ाब में मुझ को भी बता देना
ताकि तुम्हारी तरह मैं भी
सपाट,नंगी शाहराहों पर दौड़ना चाहता हूँ