Thursday, August 13, 2009

यह खेल मुझे बूढ़ा नहीं होने देगा

-प्रभाष जोशी-
मैं पत्रकारिता में इसलिए नहीं आया कि खेल के जुनून में था और खेल पर इसलिए नहीं लिखता कि पत्रकारिता में हूं। यह दुर्घटना है कि मैं पुराना टेस्ट खिलाड़ी होने की बजाय रिटायर्ड संपादक हूं। पत्रकारिता में नहीं भी होता तो भी खेलों में मेरी रुचि इसी तरह आग-सी जलती रहती। जब मैं संपादक हो गया और दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में एक टेस्ट हुआ, उसके पहले दिन की शुरुआत देखने के लिए मैं अपने दफ्तर से पास के ही कोटला ग्राउंड तक उत्तेजना में लगभग भागता हुआ गया। कार से जा सकता था, सीधे अपनी जगह पर जाकर बैठ सकता था लेकिन मैं दस बरस के उस उत्तेजित लड़के की तरह कूदता-फांदता गया, ठीक वैसे ही, जैसे लगभग चाली-पैंतालीस साल पहले अपने घर से यशवंत क्लब (इंदौर) गया था।
शाम को लौटकर आया और अपने कमरे में कुरसी पर बैठा तो मुझे अचानक लगा कि अगर क्रिकेट का यह जुनून नहीं होता तो पचास पार मुझ जैसे संभ्रांत प्रतिष्ठित संपादक के दिल में दस बरस के उस बच्चे का दिल धड़कता न होता। अचानक मेरा मन क्रिकेट के प्रति कृतज्ञता से भर गया। यह खेल मुझे बूढ़ा नहीं होने देगा। किसी ने कहा है कि खेल चरित्र बनाने से ज्यादा चरित्र प्रकट करता है। मैं ईमानदारी से कह सकता हूं कि मुझे सदा जीवंत रहने वाला मनुष्य खेल ने ही बनाया और वही मेरे चरित्र के सत्व को प्रकट करता है। .....सब कुछ खेल लेने और लीजेंड हो जाने के बाद बोरिस बेकर अपनी पत्नी को विंबलडन के सेंटर कोर्ट पर ले गए और वहां की घास दिखाकर कहा, 'यह वह जगह है, जहां मैं जनमा हूं।' बोरिस बेकर को आप-हम सब जानते हैं- जर्मनी के एक छोटे से गांव में जनमे हैं, अगर वह विंबलडन के सेंटर कोर्ट को अपना जन्म-स्थान बताते हैं तो वे वहां द्विज हुए थे- कुछ वैसे ही जैसे पोरबंदर में जनमे मोहनदास करमचंद गांधी पीटर्स मेरिसबर्ग के रेलवे प्लेटफार्म पर द्रिज हुए थे। जब आप अपने को उत्पन्न करके अपना साक्षात्कार करते हैं, तब आपका असली जन्म होता है। पॉवर और पैसे के खेल में जनमे और पनपे बोरिस बेकर को यह आत्म-साक्षात्कार विंबलडन में हुआ। कोई आश्चर्य नहीं कि जब एक अद्भुत फाइनल में वे पीटर सैंप्रस से हारे तो मैच के बाद उन्होंने पीटर के कान में कहा, 'मैं टेनिस से रिटायर हो रहा हूं।'
इस तरह खेल सिर्फ एक शारीरिक गतिविधि नहीं है। जैसे योग में शरीर की उच्चतम उपलब्धि पर आप आत्म-साक्षात्कार के सबसे पास होते हैं, वैसे ही खेल के चरम पर पहुंच कर खिलाड़ी समझता है कि वह यश, पैसे और निजी सुरक्षा के लिए नहीं, किसी ऐसे गौरव के लिए खेल रहा था, जो धन या यश से कभी प्राप्त नहीं होता। मुझे खेल जो आनंद देता है, वह और किसी गतिविधि में नहीं मिलता। जिस इंदौर शहर में मैं पला-पनपा, वह होल्करों का शहर था, लेकिन इसके राजा यशवंतराव होल्कर नहीं, कोट्टरी कनकइया नायडू थे। वहां के लड़कों को जो प्रेरणा और इंदौर के होने का गर्व नायडू से मिलता था, वह और किसी से नहीं। मुझे बार-बार एडिलेड की वह सुबह याद आती है, जब क्रिकेट प्रशंसकों के निरुत्साहित किए जाने के बावजूद हम डॉन ब्रैडमन के घर गए। ब्रैडमन को मैंने कहा, 'यदि आप तत्काल दरवाजा नहीं खोलते तो भी मैं उसके बाहर खड़ा रहता। बचपन के कितने दिन सीके नायडू की एक झलक देखने के लिए मैंने उनके बंगले के बाहर गुजारे। मैं जिस देश से आया हूं, वहां दर्शन करने वाले पट खुलने का इंतजार करते रहते हैं। जब पट खुलते हैं, तब दर्शन करके, जय बोलकर खुशी-खुशी अपने घर जाते हैं। मैं आपके दर्शन के लिए यह करता।
डॉन ब्रैडमन को यह बात इस कदर छू गई कि वह सिनीसिज्म या सनकीपन, जिसके खिलाफ हमें लोगों ने आगाह किया था, कहीं दिखा नहीं। उन्होंने ललक कर मुझसे सचिन, गावस्कर और विजय मर्चेंट के बारे में पूछा। खुद दस्तखत करके दिए। बाहर निकले तो कहा, 'कोई फोटो-वोटो नहीं खींचोगे?' मेरे साथ अशोक कुमुट था। उसने फोटो खींचे और फिर अशोक कुमुट के मैंने। सी.के. के गांव के होने का ऐसा पुण्य प्रताप है। मेरे मन में यह टीस हमेशा रहेगी कि डॉन ब्रैडमन इतने बुलाए और मनाए जाने के बावजूद मुंबई के तट पर जहाज से उतरकर सीसीआई नहीं आए। उन्हें डर था कि मुंबई में फैली बड़ी माता की बीमारी (चेचक) उन्हें लग न जाए। यह शिकायत आज भी है, क्योंकि डॉन ब्रैडमन को मानने वाले जैसे और जितने दीवाने भारत में हैं, ऑस्ट्रेलिया या इंग्लैंड में नहीं होंगे। मुझे गर्व है कि यह दीवानगी थोड़ी-बहुत मेरे अंदर भी है। इस दीवानगी और खेल के इस आनंद और गौरव को व्यक्त करने के लिए मैं क्रिकेट, टेनिस और दूसरे खेलों पर लिखता हूं। यह अपने को बूढ़ा न होने देने और जवान बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका है। एक पैसे की दवा नहीं और रंग भी चोखा है। यह मेरे जीवन के प्रोफेशनल दुखों में सबसे बड़ा दुख है कि मेरी भाषा और मेरे क्षेत्र के लोग अपनी दीवानगी व्यक्त करने के लिए अखबारों और टीवी चैनलों पर वह जगह नहीं पाते, जो मुझ जैसे खेल का आदमी न होते हुए भी अपनी इतर पत्रकारीय हैसियत के कारण सहज पा गया। जब मैं पहली बार ऑस्ट्रेलिया में विश्व कप कवर करने गया तो जो सुख-सुविधाएं मुझे प्राप्त थीं, वे खेल के किसी भी तीसमार खां को प्राप्त नहीं थीं और उसमें सिर्फ हिंदी के पत्रकार नहीं, भारत के सभी खेल पत्रकारों की यही दुर्गति थी।
ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से लौटकर आया तो मुझे जगह-जगह लोगों ने कहा कि जो लोग अंग्रेजी में ही क्रिकेट की रपट पढ़ते थे, वे भी पहले हिंदी में लिखी मेरी रपट पढ़ते थे। मुझे इस पर फूलकर कुप्प हो जाना चाहिए था, मैं नहीं हुआ। क्योंकि मै जानता हूं कि अपनी भाषा में जितना असरकारक मैं और मेरे जैसा कोई भी हिंदी वाला लिख सकता है, सीखी हुई अंग्रेजी में नहीं लिख सकता। यह आपका- मेरा दुर्भाग्य है कि हमें उस दरबार में नीचे बैठाया जाता है, जहां का सिंहासन 'अपना' है। मेरी अंतिम इच्छाओं में से एक यह होगी कि मेरी भाषा का कोई पत्रकार एक दिन फिर उस सिंहासन को अपना बनाए और उस पर बैठकर लिखे। हुक्म की तरह नहीं, आनंद की, गौरव की, अपने को बर्फ की तरह गला देने की इच्छा से लिखे।

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